Sunday, June 1, 2008

सुकून की तलाश

पता नही.. क्यों आज इतने सालों बाद कुछ लिखने की ख्वाहिश हो रही है... शायद मेरी लेखनी का मेरे एकाकीपन से एक गहरा ताल्लुक है... मैं ता-उम्र अपने आप को अकेला ही मानता रहा और इसलिए शायद अपनी भावनाएं व्यक्त करने के लिए आवाज़ से ज्यादा लेखनी का सहारा लेता रहा... कुछ वक्त ऐसा ज़रूर रहा जब मुझे इतने करीबी लोग मिले ज़िंदगी में की मुझे अपना मन हल्का करने के लिए कागज़ काले करने की ज़रूरत नहीं पड़ी... पर ऐसा वक्त लम्बा नही रहा...

साल भर पहले मैंने ये ब्लोग शुरू किया था क्योंकि तब मैं मुम्बई में अकेला रहता था..खुद से बातें करने के अलावा कोई काम नहीं होता था... पर उसके बाद जब से दिल्ली आया हूँ... खुद के लिए समय ही नहीं मिला... जब भी काम से खाली वक्त मिला तो बार बार IIT कानपुर जा कर अपने आपको पुराने वक्त में भुला देने की कोशिश करता रहा... मुझे लगता था की मैंने अपनी ज़िंदगी के सबसे बेहतरीन साल IIT कानपुर में गुजारे हैं और सबसे करीबी दोस्त भी वहीं बनाये... इसलिए बार बार भाग कर वहाँ जाता रहा... धीरे धीरे IIT जा कर भी वह सुकून मिलना बंद हो गया...

कुछ पुराने रिश्ते संभालने के चक्कर में कोई नया रिश्ता बनाने का वक्त ही नहीं मिला...एकदम से जब पुरानी यादों का मोह टूटा तो होश आया कि मैंने पिछले दो सालों में न तो कोई नया दोस्त बनाया न कोई साथी... अचानक ही इतना अकेला लगने लगा कि वापस लेखनी का रुख करना पड़ा...

कहते हैं अगर इंसान खुद से दोस्ती कर ले तो उसे फिर किसी और कि कोई ज़रूरत नही रहती... जब तक वह खुद को कोसता रहेगा और सुकून के लिए इधर उधर भागता रहेगा तब तक उसे सच्चा सुकून नहीं मिल सकता... जैसे सच्चा भगवान इंसान के अन्दर होता है ठीक उसी तरह सच्चा सुकून भी इंसान के भीतर ही कहीं छिपा होता है..हम उसे कभी अपने दोस्तों में..कभी अपने परिवार में....कबी अपने प्रेम में..कभी अपनी संतान में ढूंढते रहते हैं पर अंत में खुद को अकेला पाकर ही एहसास होता है कि वह सुकून तो स्वयं में ही विराजमान था... खैर..मैं भी किस ज्ञान कि गंगा में बहने लगा... मुद्दे कि बात तो पीछे ही रह गयी...

समय आ गया है कि मैं वापस अपनी ऊर्जा अपने ऊपर केन्द्रित करूं और खुद को उस मुकाम पर पहुंचा सकूं जहाँ बैठ कर मुझे सुकून मिले..हो सकता है कि वहाँ मेरे साथ मेरे दोस्त न हों... परिवार भी न हो और प्रेम भी न हो... पर शायद वहाँ वह सुकून मिल जाये जिसकी तलाश में आज तक इधर उधर भटकता रहा हूँ...

ज़िंदगी के पहले पच्चीस साल निकल गए... ऐसा नहीं कि मैंने इतने सालों में कुछ अच्छा नहीं किया..जब तक school में रहा पढाई लिखाई में अव्वल ही रहा ...फिर IIT पहुंचा तो वहाँ भी ठीक ठाक ही बीता सब कुछ...एक ठीक ठाक नौकरी भी मिल गयी HUL नाम की एक कंपनी में ... कुछ पैसे भी कमा लिए दो सालों में..घर के कुछ छोटे मोटे काम भी कर लिए... पर फिर भी उस खुशी का एहसास नहीं हुआ जिसके लिए इतनी मेहनत की...

शायद सफलता का आनंद से उतना सरल रिश्ता भी नहीं है जितना हम समझते हैं... देखा जाए तो मैं जीवन में अब तक काफी सफल रहा हूँ और शायद ही कोई ऐसी चीज़ हो जिसके लिए मैं ऊपर वाले से कोई शिकायत करूं... पर फिर भी आनंद अब भी बहुत दूर है... खुशी के कुछ इक्के दुक्के पल ज़रूर मिलते रहते हैं... दसवीं के बोर्ड exam में टॉप करने कि खुशी...IIT कानपुर में अद्मिस्सिओं मिलने कि खुशी... अशोक चक्रधर और गोपाल दस नीरज जैसे कवियों के साथ मंच पर अपनी कविता सुनाने कि खुशी... भैया के लिए एक bike खरीद कर खुशी... HUL में desh का number one ASM बनने कि खुशी..पर इन खुशी के पलों में वह बात कभी नहीं रही जो एक आनंद कि एहसास कर सके... वो एहसास जो बारासिरोही गाँव के उन बच्चों को पढा कर मिला करता था... वो एहसास जो नासिक के आदिवासी बच्चों को खाना खिला कर मिलता था... वो एहसास जो अपने देश का इतिहास पढ़कर मिलता है...

किसी तरह कि सफलता नहीं..कोई नाम नहीं...कोई उपलब्धि नहीं..कोई प्रशंसा नहीं...न ही कोई पैसे से भरा तोहफा...बस एक अदद एहसास...एक अद्भुत से आनंद का...जिसमें तेज़ धुप भी शीतल लगे...और सर्द रातें भी गर्माहट का एहसास करा दें... उसी एक आनंद के क्षण के लिए ये मन न जाने कब से व्याकुल तड़प रहा है ...और न जाने कब उस एहसास को पूरी तरह से जीने का मौका मिलेगा...तब तक मन के बोझ को हल्का करने के लिए इसी लेखनी का सहारा लेता रहूंगा ..और ऐसे ही कागज़ काले करता रहूंगा...