Sunday, September 15, 2013

मत मारो मेरी हिन्दी को

कल हिन्दी दिवस थी। एक बार फिर लोगों ने कसम खाई की हिन्दी को और बढ़ावा देने की पूरी कोशिश करेंगे। एक बार फिर हिन्दी के ठेकेदारों ने इंग्लिश और उर्दू के खिलाफ जहर उगला और कोशिश की कि हिन्दी को और भी संस्कृत जैसा बना दें। और एक बार एक आम हिन्दी बोलने वाला नाराज़ होने से ज़्यादा कुछ न कर पाया। 

14 सितम्बर को हिन्दी दिवस इसलिए नहीं मनाते कि इस दिन कोई बहुत बड़ा कवि या लेखक पैदा हुआ था। हम इस दिन हिन्दी दिवस इसलिए मनाते हैं क्योंकि देश के संविधान सभा ने इसी दिन हिन्दी को आज़ाद भारत कि शासकीय भाषा मान लिया था। ये उतना ही दबंग कदम था जितना कि यूरोप का किसी एक भाषा को अपना लेना। इससे पहले भी शासकीय भाषा के रूप में फारसी और अंग्रेज़ी भारत पर थोपी गयी थी लेकिन वो वक़्त और था। अब ये हमारा अपना देश है और इसलिए लोगों से सोचा कि जैसे ये देश कभी मुग़लों के अधीन था और कभी अंग्रेजों के तो क्यों न अब इसे हिन्दी के अधीन कर दिया जाये।
कहीं न कहीं वे लोग हिन्दी को समझने में चूक कर गए। हिन्दी संस्कृत नहीं है। हिन्दी फारसी या अंग्रेज़ी की दुश्मन भी नहीं है। ये तो लोगों कि बोली है। शायद आज़ादी आने कि इतनी खुशी थी या पाकिस्तान के अलग हो जाने का इतना गुस्सा कि हमने सोचा कि हम अपनी भाषा ऐसी बनाएँगे जो सबसे अलग हो और इस सब में ये ही भूल गए कि भाषा जनता से बनती है सरकार की तरफ से थोपी नहीं जा सकती। 

जब तक भारत पर मुग़ल राज स्थापित नहीं हुआ था, तब तक शायद कोई एक ऐसी भाषा नहीं थी जो पूरे भारत को एक सूत्र में बांधती हो। हम भी शायद आज के यूरोप जैसे थे। कहने को संस्कृत तो थी लेकिन उसे ब्राह्मणों ने अपनी बपौती बना कर उसका दम घोंट दिया था। दक्षिण भारत में तमिल, मलयालम, तेलुगू और कन्नड़ अपने आप में इतनी शानदार भाषाएँ थी कि उन्हे बदलना आसान नहीं था। न सिर्फ वे साहित्य और संगीत की भाषा थे बल्कि वे जनता की भी भाषाएँ थी। और शायद इसलिए आज भी ये भाषाएँ उसी दम खम से टिकी हैं जिस शान से वे हजारों साल पहले थी। लेकिन उत्तर भारत में हालात और थे। यहाँ ब्राह्मणों ने संस्कृत का ये हाल कर डाला था की जनता की अपनी हजारों बोलियाँ पनप चुकी थी। पाली और प्राकृत से निकली मारवाड़ी, मेवाती, अवधी, मैथिली, बुन्देली, ब्रज, पहाड़ी सब अपने आप में एक अलग संस्कृति और उसके लोगों के जीवन की कहानियाँ सुनाती थी।

जब दिल्ली में मुस्लिम राज आया तो फारसी सरकारी भाषा हो गयी और सारे कागजी काम फारसी में होने लगे। लेकिन इसका भी जल्दी ही संस्कृत वाला ही हश्र होना था। मुग़ल सेना के सिपाहियों ने अपनी बोलियों और फारसी के शब्दों से एक नयी भाषा का ईजाद किया जो उर्दू कहलाने लगी। जैसे संकृत के ब्राह्मणों ने कभी देशी बोलियों को तवज्जो नहीं दी उसी तरह फारसी और अरबी के शायरों ने उर्दू की भी अवहेलना की। करीब 1800 ईस्वी के बाद उर्दू ने थोड़ी इज्ज़त पाना शुरू की।  ग़ालिब ने अपनी उर्दू से ज़ौक़ की फारसी ले लड़ाई जारी रखी। इसके 300 साल पहले तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखी थी जो अवधी में थी। दक्षिण भारत में भी जहां तक मुग़ल पहुंचे वहाँ नयी तरह की भाषाओं का आविष्कार हुआ। और हैदराबाद के आस पास दक्खिनी हिन्दी पनपने लगी। धीरे धीरे उर्दू में देसी शब्दों का इस्तेमाल बढ़ता गया और 1900 तक ये बता पाना मुश्किल हो गया की उर्दू कितनी फारसी है और कितनी हिंदुस्तानी। अंग्रेजों का राज तब तक पूरी तरह से कायम हो चुका था और अंग्रेज़ी नयी सरकारी भाषा थी। लेकिन अंग्रेजों ने जमीनी दस्तावेज़ों को पुराने तरीके से चलते रहने दिया। 

ऐसे में उर्दू जनता की भाषा बनने लगी, लेकिन कुछ 'फारसी ब्राह्मणों' को उर्दू के देसीकरण को रोकने की कोशिश की और तब हिन्दी का जन्म हुआ। इसमें उर्दू के भी शब्द थे, और देसी भाषाओं के और भी ज़्यादा शब्द थे।  मल्लिक मोहम्मद जायसी पहले ही ऐसी हिन्दी में लिख चुके थे। भारतेन्दु हरिश्चंद्र भी अब इस हिन्दी में लिखने लगे। और इसे हिंदुस्तानी भाषा कहा जाने लगा। ये कोई एक भाषा नहीं थी। इसकी कई बोलियाँ थी। दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खड़ी बोली पनपने लगी और राजस्थान की मारवाड़ी से कांगड़ा की पहाड़ी तक और बिहार की मैथिली से हैदराबाद की दक्खिनी तक और भोपाली से लेकर मुंबइया तक हिन्दी के कई प्रकार बन गए। और यही वजह थी की हिन्दी लोगों की बोली बन गयी। क्योंकि हिन्दी किसी सरकार की तरफ से नहीं बल्कि लोगों की मर्ज़ी के हिसाब से बदलती रही।

जब भारत में सिनेमा की शुरुवात हुई तो कई उर्दू के ऐसे लेखक जो उर्दू के संस्कृत जैसी होती हालत से दुखी थी, वे सिनेमा की तरफ आए। कई बंगाली लेखक और मराठी लेखकों ने भी सिनेमा की हिन्दी को नए आयाम दिये। और अंग्रेज़ी को भी अपनाने में हिन्दी ने कोई हिचकिचाहट कभी नहीं दिखाई। अब बैंग्लोर में भी एक नयी तरह की हिन्दी का ईजाद हो रहा है जो लोगों की बोली है। 

लेकिन इस सब के बीच हमने हिन्दी को सरकारी भाषा अर्थात राजभाषा बनाकर एक अजीब सी गलती कर डाली। एक भाषा जो अभी सौ साल पुरानी भी नहीं थी और अपने नए जन्म में खुशी से इठला रही थी, हमने उसे किशोरावस्था में ही सरकार के हाथ गिरवी रख दी। और हिन्दी पर संस्कृत थोप दी गयी। हमने ये नहीं सोचा कि अगर संस्कृत जनता कि भाषा होती तो वो भी तमिल की तरह आज भी ज़िंदा होती। लेकिन हिन्दी पर संस्कृत थोप कर हमने उसे उर्दू और अंग्रेज़ी के खिलाफ एक जंग में खड़ा कर दिया। और तो और हमने हिन्दी को हिन्दी की ही बोलियों के खिलाफ खड़ा कर दिया।

इसलिए सरकारी हिन्दी में रिपोर्ट (अंग्रेज़ी) को प्रतिवेदन (संस्कृत) कर दिया, दारोगा (उर्दू)/इंस्पेक्टर (अँग्रेजी)  को निरीक्षक (संस्कृत), किसान (देसी)/ काश्तकार (उर्दू) को कृषक (संस्कृत) कर दिया। और तो और हमने "शुद्ध हिन्दी" नाम का एक ऐसा दानव बनाया जिसने हिन्दी को पूरी तरह खिलने से पहले ही मारने का प्लान बना दिया। हिन्दी कि खूबसूरती इसमें है कि खूबसूरती को सौन्दर्य कहना ज़रूरी नहीं है और न ही ज़रूरत को आवश्यकता कहना आवश्यक है। दूध को दुग्ध कहना और कंप्यूटर को संगणक कहना बेवकूफी है। हिन्दी बीसवीं सदी की भाषा है। हम क्यों इसे वक़्त में पीछे धकेलना चाहते हैं? अगर इसे इक्कीसवी सदी में अपना वजूद बनाए रखना है तो इसे अंग्रेज़ी और उर्दू की दुश्मन बन कर नहीं बल्कि उर्दू, अंग्रेज़ी और सभी देशी भाषाओं की दोस्त बन कर रहना पड़ेगा।

दक्षिण भारत में भी हिन्दी तभी फैलेगी जब ये तमिल से दुश्मनी करने की बजाय उसे अपनाएगी। संस्कृत को बचाए रखने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन उसके लिए हम एक नयी भाषा को अपने नैचुरल तरीके से पनपने से न रोकें। अगर इस हिन्दी दिवस को कोई संकल्प लेना ही है तो ये संकल्प लें कि हिन्दी को लोगों की भाषा बनने दें और जैसा भी लोग चाहें वैसा रूप हिन्दी को लेने दें। चाहे वो बॉलीवुड से आए, इंटरनेट से या फिर हिन्दी की किताबों से। हिन्दी पर किसी भी प्राचीन भाषा से दंगल का भार न डालें। फिर शायद हमारे पास ऐसी एक सरकारी भाषा होगी जो सचमुच पूरे भारत को अपना सके।