Saturday, April 26, 2014

'गर तुम होती तो

'गर तुम होती तो ये ख़ाली शाम यूँ ख़ाली न होती
इसकी ख़ामोशी की खनक में ये चुभन न होती
ये जो पेड़ों पर पत्ते उदास लटके पड़े हैं
तुम्हारे होने पर नाचते-लहराते
ये जो चट्टानों पर बेनूरी छाई है
'गर तुम होती तो इनपे मुस्कान होती

तुम नहीं हो तो तो इस नदी में कोई जान नहीं
वरना अँगड़ाई लिए इतराए फिरती थी मुई
ये अलसाई सुबहें तुम पर वारी जातीं
जो अब ऊँघती रहती हैं यूँ ही
शहर का शोर सुरीला हो जाता
जो लहू बहा देता है कानों से
'गर तुम होती तो ये चाँद शरमा जाता
इसमें ऐसी अकड़न न होती
'गर तुम होती तो ये ख़ाली शाम यूँ ख़ाली न होती
इसकी ख़ामोशी की खनक में ये चुभन न होती

तुम्हारे न होने से मेरे होने को एहसास 
और भी घटने लगा है
मैं हूँ इसी दुनिया का कोई ख़ास
ये भरम हटने लगा है
तुम आ जाते तो मिल जाती
मेरे वजूद को कोई औक़ात
तुम जो होती तो 
मुझे ख़ुद के होने का होता एहसास
'गर तुम होती तो यूँ मेरे जिस्म में
ज़िन्दा लाश सा वज़न न होता
'गर तुम होती तो ये ख़ाली शाम यूँ ख़ाली न होती
इसकी ख़ामोशी की खनक में ये चुभन न होती

तुम जो आ जाओ तो इक रोशनी आ जाए हरसू
तुम जो आ जाओ तो मैं फिर से जी लूँ
तुम न आ पाए तो बस रूह भटकती होगी
साँसें होंगी पर इक जान को तरसती होंगी
तुम जो 'गर होती तो हर साँस चहकती मेरी
होती 'गर तुम तो हर साँस में तुम्हीं होती
'गर तुम होती तो ये ख़ाली शाम यूँ ख़ाली न होती
इसकी ख़ामोशी की खनक में ये चुभन न होती....