Wednesday, May 13, 2020

कैसे बताऊँ किसे ज़्यादा चाहता हूँ

कैसे बताऊँ किसे ज़्यादा चाहता हूँ

उसे, जिसने धूप सह कर सींचा है इस बगिया को
या जो खुद फूल बनकर खिल गई है आंगन में

वो जिसने थामा है हाथ हर अच्छे बुरे पल में
या वो जो हर अच्छे पल के होने की वजह है

कैसे बताऊँ किसे ज़्यादा चाहता हूँ

एक वो है जिसको चाँद की तरह याद किया है हर पल
और इक वो है जो चंदा की तरह ही प्यारी है

एक मेरे बगल में बैठे साथ दुनिया बुन रही है
और एक वो जिसे हम दोनों अपनी दुनिया मान बैठे हैं।

ये ना होती तो न होता मेरे होने का अहसास
वो न होती तो हम दोनों के होने का कोई मतलब ही न होता।

कैसे बताऊँ किसे ज़्यादा चाहता हूँ

एक को दिल दे बैठा आशिकी में
दूसरी खुद दिल बनके पैदा हुई

एक के सामने दिल खोलके रो लेता हूँ
दूसरे के रोने पर दिल दहल ही जाता है


एक हमसफर है, साथी है, इस डगर की
और दूसरी - इसी सफर की मंज़िल


कैसे बताऊँ किसे ज़्यादा चाहता हूँ

Thursday, March 8, 2018

महिला दिवस पर पुरुष होना

आज सोशल मीडिया पर एवं अन्यत्र भी महिला दिवस पर लाखों लेख देखने को मिल रहे हैं. एक पॉजिटिव बात जो नज़र आ रही है कि बमुश्किल ही सही, पुरुषों को महिलाओं की बराबरी का अर्थ समझ आ रहा है. जब मैं एक बालक था तो पड़ोस में एक अंकल घर चलाने में अपनी पत्नी की पूरी मदद करते थे. घर का सारा काम मिलकर करते थे - खाना भी बनाते थे और कपडे भी धोते थे. लेकिन आस पास के लोग उन्हें फेमिनिस्ट या साम्यवादी की उपाधि से सम्मानित नहीं करते थे. लोग अक्सर उन्हें जोरू का गुलाम कहकर उनका मजाक उड़ाते थे. बीस वर्षों में कुछ तो सुधार हुआ है. आज जब मेरी उम्र के लोग घर के काम में अपनी पत्नी की मदद करते हैं तो कम से कम उनके हम-उम्र उन्हें जोरू का गुलाम नहीं बल्कि सपोर्टिव कहते हैं. ये अलग बात है कि हमारे पेरेंट्स की उम्र के लोगों को अब भी ये गुलामी ही लगती है. 

गलती सिर्फ हम पुरुषों की नहीं है कि हम सपोर्टिव नहीं है. हमारी परवरिश में बहुत सारी कमियां थी. बावजूद इसके कि हम और हमारी बहनें एक ही स्कूल में पढाई गईं और एक जैसा ही खाना हम दोनों को मिला, जब बहनों को खाना बनाना सिखाया गया तो हम लड़कों को क्यों नहीं सिखाया? क्यों उम्मीद की जाती रही कि बॉयज हॉस्टल में रहने वाले लड़के का तो कमरा गन्दा ही रहता है लेकिन गर्ल्स हॉस्टल में अकेले रहने वाली लड़की का कमरा चकमक साफ़ दिखना चाहिए. ऑफिस में भी एक महिला सहकर्मी के साथ किस तरह का व्यवहार सही है, यह बताने वाला कोई क्यों नहीं होता. जब भी हमें स्कूल में कोई लड़की पसंद आती थी तो टीचर्स और पेरेंट्स उसे हमारी बहन बना देते थे, वरना शायद हम उनसे ब्याह ही कर लेते. क्यों हमें सिर्फ दोस्त या सहपाठी की तरह दुसरे जेंडर के साथ घुलने मिलने नहीं दिया जाता? ये कहना कि लड़के जन्म से ही खुद को लड़कियों से सुपीरियर मानते हैं, गलत है. ऐसा परवरिश के दौरान उन्हें सिखाया जाता है. 

एक बार जब मैं क्लास में दूसरे स्थान पर था तो एक लड़की पहले स्थान पर थी. मैं उससे इर्ष्या भी करता था और उससे आगे भी आना चाहता था. लेकिन क्यों उस समय किसी टीचर ने मुझे ये कह कर उकसाया कि 'एक लड़की को नहीं हरा सकते क्या?' बुद्धि का जेंडर से कोई कनेक्शन है - यह झूठ बचपन में हमारे दिमाग में क्यों भरा? और जब हम रियल लाइफ में खुद से बुद्धिमान महिलाओं से टकराते हैं तो हमारी कुंठित मर्दानगी ये बर्दाश्त नहीं कर पाती. मेरी पिछली नौकरी में जब मैं अपने दो फीमेल कलीग से कम्पीट कर रहा था तब मेरे बॉस ने मेरी मर्दानगी को ललकार कर कहा की तू क्या लड़कियों से भी हार जायेगा? क्यों लड़कियों से हार जाना इतना बुरा है? मेरिटोक्रेसी में ये लिंगभेद क्यों लाते हो यार. अगर मैं किसी लड़के से हार सकता हूँ तो किसी लड़की से भी. अभी हाल में मैंने एक बेहद उम्दा महिला आई एस अधिकारी को कहा कि आप जब मुख्य सचिव बनेंगी तो काम करने में मज़ा आएगा. उन्होंने हँसते हुए कहा कि तुमने देखा है किसी महिला आई ए एस को मुख्य सचिव बनाये जाते? मैं दंग रह गया. देश की सर्वोच्च नौकरी में भी मेरिट से ज्यादा यदि आपका जेंडर देखा जाता है तो गलत है.

एक बार मैंने अपने किसी दोस्त से कहा कि मुझे एक लड़की पसंद है क्योंकि जब उसने दसवीं का बोर्ड दिया था तो उसके मुझसे भी ज्यादा मार्क्स थे. और मैं जितने समय में सिर्फ बी टेक कर सका उतने समय में वो मास्टर्स कर पी एच डी करने पहुँच गयी. मुझे उत्तर मिला "अबे, लड़की पसंद करने में ये सब कौन देखता है बे?" तो फिर लड़का पसंद करने में ये क्यों देखते हैं? क्यों हम लड़कों से कहा जाता है की तुम पढाई में जितना अच्छा करोगे तुम्हें दुनिया उतना ही सफल मानेगी? फिर क्या यही मापदंड लड़कियों पर लागू नहीं होते? बुरा तब लगता है जब महिलाएं ही ऐसे व्यवहार को जस्टिफाई करने लगती हैं. अभी हाल में किसी अत्यंत सफल अकादमिक पुरुष की पत्नी ने हमसे कहा कि, " जो भी कहो, औरत को जो सुख पति के पीछे चलने में आता है, वो बराबर चलने में नहीं". अफ़सोस हुआ सुनकर. कई बार कई वरिष्ठ प्रशानिक अधिकरियों की घरेलु पत्नियों से ये सुनने को मिल जाता है कि जब हस्बैंड आई ए एस है तो हमें नौकरी करने की क्या ज़रूरत? ऐसा कभी किसी महिला आई ए एस के पति से सुनने को नहीं मिला.

इन सबका एक बहुत बड़ा कारण है एक मिथ की बच्चे पालना माँ का काम है. सच ये है की स्तनपान के अलावा ऐसा कोई चाइल्डकैअर कार्य नहीं है जो जेंडर बेस्ड हो. परन्तु क्योंकि हम पुरुषों को हमारे पिताओं ने और हमारी माताओं ने कुछ सिखाया ही नहीं इसलिए हम पंगु बने सिर्फ बच्चे को बाहर घुमाने के काम में लगा दिए जाते हैं. ये गलत है. शुक्र है कि हमारी पीढ़ी के पिता इन्टरनेट और पेरेंटिंग बुक्स के माध्यम से बच्चों को संभालना सीख रहे हैं. मुझे अभी भी याद है कि जब मैं बाप बना तो मेरे एक बहुत करीबी दोस्त ने मुझे बताया की दूध पीने के बाद अपनी बेटी को ऐसे ढकार दिलाना. मेरे एक दुसरे करीबी दोस्त ने ये बताया कि बेटियों को नहलाने में किस तरह का विशेष ध्यान रखना चाहिए. हम अपनी बेटियों या अपने बेटों की बेबी सिटींग नहीं करना चाहते. हम उन्हें पालना चाहते हैं. एक पैरेंट की तरह. हम नहीं चाहते की बेटी माँ से पूछे की मेरे शूज कहाँ है, मेरी बुक्स कहाँ है, खाने में क्या है? और हमसे सर्फ ये पोछे कि मम्मा कहाँ है. हमारे जैसे कई पुरुष अपनी पत्नियों के करियर में सहायक होना चाहते हैं और अपने बच्चों को पालने में माँ के बराबर भूमिका निभाना चाहते हैं, लेकिन हमें कोई सिखाने वाला नहीं है. हम फिर भी सीख रहे हैं और प्रयास कर रहे हैं. लेकिन हमें पुरुषों से बेहतर इंसान बनाने में औरतों की एक  बड़ी मदद की ज़रूरत है.

इसलिए मैं आज महिला दिवस पर औरतों से आग्रह करूँगा की अपने बेटों को, अपने भाइयों को और अपने पुरुष मित्रों को घर संभालना सिखाएं - घर की सफाई, किचन के काम, बच्चों को पालना - सब सिखाएं. शायद कई पुरुष अपनी झूठी मर्दानगी बघारने के चक्कर में ये सब न करना चाहें, पर वे कुछ जो करना चाहते हैं, उन्हें कोई दूसरा पुरुष नहीं मिलता जो उन्हें सही बात सिखा सके. इसलिए अपने पुरुष साथियों को एक बेहतर इंसानबनाने में सहयोग करें. महिला दिवस की शुभकामनाएं. 

Thursday, October 5, 2017

सवा साल का बाप

चौदह महीने और तीन हफ्ते पहले मैं एक बिटिया का बाप बना। 15 अक्टूबर को अक्षरा (रीत) पूरे 15 महीने की हो जाएगी। मुझे इतना वक्त लग गया अपने भावों को लिखने में। या यूं कहें कि अब थोड़ी फुर्सत मिली।

14 जुलाई 2016 की रात जब मैं नेहा को लेकर मैटर्निटी क्लिनिक गया था तो लगभग ये तय था कि अगली सुबह नेहा की सर्जरी होगी और एक बच्चे का जन्म होगा। मेरी माँ ने ढूंढ कर एक ऐसा दिन निकाला था जिस दिन हरि शयनी एकादशी होने वाली थी। वो दिन जिस दिन विष्णु भगवान क्षीर सागर में महीनों के लिए हाइबरनेट करने चले जाते हैं। क्योंकि नॉर्मल डिलीवरी नहीं थी इसलिए हमें प्लानिंग का वक्त मिल गया था। होने वाली बच्ची के नाना नानी और परनानी (नेहा की दादी) के साथ साथ दादा-दादी (मेरे माँ बाप) भी भोपाल में थे। और इस शहर से हम सब अनजान थे। अभी 6 महीने पहले ही तो एक किराए के मकान में नेहा शिफ्ट हुई थी और मैं भोपाल से 6 घंटे की दूरी पर छतरपुर जिले में नौकरी कर रहा था। घर की लगभग सभी औरतों ने अपने-अपने टोटके से ये घोषित कर दिया था कि लड़का ही होगा। भला हो PCPNDT कानून का जो ये सरप्राइज खुला न था।

जैसे लोग हर चुनाव के पहले ओपिनियन या एग्जिट पोल करते हैं वैसे ही इस एग्जिट पोल का नतीजा था लड़का। और लॉजिक भी एक से एक - "बहु का पेट आगे की ओर बढ़ रहा है, बेटा होगा", "बेटी को उल्टियां कम आ रही हैं, बेटा होगा" और न जाने क्या क्या। मैं अकेला इन सब के बीच ये उम्मीद कर रहा था कि बेटी हो। जिन जिन कारणों से लोग बेटा चाहते हैं, ठीक उन्हीं कारणों से मुझे बेटी चाहिए थी। स्वार्थ, बुढ़ापे की लाठी, और समाज का दबाव जैसे कारण लोगों को बेटे की चाहत का justification लगते हैं, मुझे बेटी के चाहत के। बेटा या तो मम्मा'ज़ बॉय बनेगा या जोरू का ग़ुलाम; जो भी बने बाप का बेटा न होगा। बिटिया तो ताउम्र बिटिया ही रहेगी। अपनी माँ या सास से उसकी बने या न बने, बाप को वो हीरो ही मानेगी। इसलिए बावजूद इसके कि उल्टियां कैसी थी और पेट किस दिशा में बढ़ा था, मन ही मन मुझे बेटी चाहिए थी।

15 जुलाई की सुबह 9 बजे जब नेहा को आपरेशन थिएटर में ले गए तो अपने उसी खुर्राट अंदाज़ में उसने thumbs up किया जिस अंदाज में वो हमेशा करती है। शायद घबराहट वो चेहरे पर नहीं आने देना चाहती थी। उसके अंदर जाते-जाते मेरे और नेहा के माँ बाप और नेहा की दादी OT के बाहर डेरा जमा चुके थे। करीब पैंतालीस मिनट तक कोई खबर न आई। सबको हल्की-हल्की घबराहट थी पर कोई कुछ बोल नहीं रहा था ऐसा लग रहा था मानो सबका रिजल्ट आने वाला हो। लगभग पौने दस पर एक डॉक्टर OT से बाहर आया और पूछा "नेहा के साथ कौन है?" बैठे तो आधा दर्जन लोग थे लेकिन घटना की ज़िम्मेदारी लेते हुए मैं आगे बढ़ा। डॉक्टर ने फट हाथ मिलाया और कहा, "Congratulations. It's a girl. 4.1 kilos". मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैं OT के बाहर ऐसे उछल-उछल कर यस यस कहते हुए एयर-पम्पिंग कर रहा था जैसे इंडिया फिर से वर्ल्ड कप जीत गई हो। मेरी माँ और मेरी सास के चेहरे पर खुशी तो थी लेकिन उनकी भविष्यवाणी फैल हो जाने का रंज भी। मेरी wish ने सबकी भविष्यवाणी फैल कर दी थी। माँ ने तपाक से कहा, "भगवान ने सुनी तुम्हारी ही। बहुत मन से बेटी मांगे थे लगता है।" मैं भी धोनी की तरह कूल बनते हुए मुस्करा रहा था कि फाइनल छक्का कौन लगाया, बताओ?

दस मिनट बाद नर्स आई। उसकी गोद में रुई के गोले जैसी मेरी गोल मटोल बेटी थी। सर पर घने-घने बाल। सुंदर बालों का क्रेडिट तुरंत नारियल पानी को दे दिया गया और नारियल पानी पिलाने का क्रेडिट नेहा की माँ को। सबने बेटे का ऐसा माहौल बना रखा था कि बेटी के नाम भी अभी फाइनल नहीं थे, शॉर्टलिस्ट भर हुए थे। नर्स ने मास्टरनी जैसा पूछा, "पहले कौन उठाएगा?" और हम आधा दर्जन लोग स्कूल के बच्चों की तरह लाइन में लग गए। हाइट वाइज नहीं, ऐज वाइज। नेहा की दादी, मेरे पापा, मेरे ससुर, मेरी माँ, मेरी सास और मैं। अस्सी, साठ और पचास के दशकों से प्यार पा चुकने के बाद बिटिया मेरी गोद में आई। उसे बिल्कुल नहीं मालूम था कि वो कहाँ है, वो बस रोए जाती थी। और हम देखते न अघाते थे। पापा ने तुरंत इशारों में आदेश दिया कि अस्पताल में मिठाई बांटी जाए। किसी ने नर्स को बख्शीश दे दी। कोई बिटिया के लिए पहले से तैयार कमरे को और तैयार करने लगा। हम सब भूल ही गए कि नेहा अब भी अंदर है। कुछ देर बाद नेहा बाहर आई। लेटे-लेटे ही उसने चुटकी ली, "आज खुश तो बहुत होगे तुम? बेटी मिल गई तुम्हें।" मैंने पूरी बेशर्मी से दांत निपोड़ते हुए कहा, "बहुत ही ज़्यादा"।

फिर बधाइयों, फ़ोन कॉल्स और मिठाई बांटने का दौर चला। हमारे घर में आधी पंडित, आधी पंजाबी बिटिया का आगमन हो चुका था। माँ (दादी) ने छठी करने की ठानी। पंडित जी बुलाए गए और एक छोटे से समारोह में जन्म के छठे दिन पूजा हुई और खीर पूड़ी के मज़े लिए गए। दादी (परनानी) ने कहा कि तेरहवें दिन गुरुद्वारे में अरदास होगा। सो वो भी हुआ। नेहा की माँ (नानी) ने कहा कि मंदिर के बाहर गरीबों को चालीसवें दिन हलवा पूड़ी बांटेंगे। सो वो भी बाँटे। सबने अपने-अपने तरीके से अपने-अपने भगवान को एक स्वस्थ बेटी का धन्यवाद दिया।

मुझे पैटर्निटी लीव के बाद छतरपुर लौटना पड़ा। लेकिन बिटिया से दूरी बर्दाश्त कहाँ थी। खैर, इसी बीच बेटी का नाम फाइनल हुआ। नानी की चाह पर "रीत" रखा गया और मेरे और नेहा की पसंद पर "अक्षरा"। माँ और बाप के परिवारों के संगम से जन्म प्रमाण पत्र पर नाम छपा, "अक्षरा आर्या ठाकुर" आत्मजा नेहा आर्या एवं चंद्रमोहन ठाकुर। सब रीत को रीत बुलाने लगे। अब अचानक वो बस एक बच्ची नहीं थी। उसकी एक पर्सनालिटी थी। 'रीत ऐसा करती है', 'रीत ने सुसु कर दिया', 'रीत रो रही है', 'रीत किधर देख रही हो?' 'रीत पापा को मिस करती है?' और न जाने क्या क्या बातें सभी रीत से करने लगे।

महीने भर की दूरी के बाद फाइनली नेहा रीत के साथ छतरपुर आई। बाकी की मैटर्निटी लीव वहीं बिताने का फैसला हुआ। रीत अब मुस्काने लगी थी। अब शायद उसे हम दिखने भी लगे थे। जैसे हर माँ बाप पागलपन करते होंगे, हमने भी शुरू किया - हर महीने रीत का जन्मदिन। पहले महीने पर फूलों से एक लिखा और एक छोटे से कपकेक के साथ रीत की तस्वीर ली। मैं 15 अगस्त के कारण मिस कर गया। दूसरे महीने मैं था। इस बार फूलों से दो लिखा और दो कपकेक्स के साथ तस्वीर खिंची। तीसरे महीने के जन्मदिन पर मैं फिर बाहर था। मैंने तय किया कि अब चौथे से बारहवें महीने तक मैं कभी उसका बर्थडे मिस नहीं करूंगा। लेकिन मैटर्निटी लीव तो 6 महीने में खत्म हो जाएगी, उसके बाद क्या? मेरे दिमाग में उथल पुथल मचने लगी।

मैंने तय किया कि चाहे जैसे भी हो नेहा की मैटर्निटी लीव खत्म होने से पहले मैं भोपाल ट्रांसफर करवा लूंगा। लेकिन भोपाल के आला अफसर तो मुझे जानते भी नहीं थे। ऐसे में इतने जूनियर अफसर की कौन सुनेगा? और मैं कोई माँ तो हूँ नहीं कि बच्चे को मेरी ज़रूरत है और इसलिए मैं दूर नहीं रह सकता। इस ग्राउंड पर तो ट्रांसफर होना मुश्किल ही लग रहा था। पर ज़रूरत तो मेरी थी कि मैं उससे दूर नहीं रहना चाहता था। मैंने हर संभव व्यक्ति से ये गुहार लगानी शुरू की कि मुझे भोपाल ट्रांसफर कर दिया जाए। मेरे कमिश्नर मनोहर अगनानी साब ने मेरी स्थिति समझी। खुद एक बेटी के बाप और एक उम्दा फेमिनिस्ट और ह्यूमनिस्ट होने के नाते उन्होंने माना कि बच्ची के साथ रहना पिता का भी अधिकार है और मुझे अपनी बात हर संभव स्तर पर रखनी चाहिए। उन्होंने अपने पद का उपयोग कर मेरी अर्ज़ी मुख्यमंत्री जी और उनके प्रमुख सचिव तक पहुंचाई। मैं स्वयं अपनी बात सामान्य प्रशासन के सचिव एवं मुख्य सचिव तक कहने गया। लेकिन आश्वासन के सिवा कुछ हाथ न लगा।शायद ये बात किसी के गले नहीं उतरी की बाप को बच्चे के जन्म पर ट्रांसफर लेने का क्या मतलब? ये सुविधा तो केवल महिला कर्मियों को मिलनी चाहिए। रीत पाँच महीने की होने लगी। बिछड़ने का वक्त करीब आ गया। और मैं एक दिन रो पड़ा। नेहा ने चिढ़ते हुए कहा, "मुझसे अलग रहते हुए तो कभी नहीं रोए ऐसे?" लेकिन उसने मेरा दिल रखने को ये भी कहा "एक बार रीत को आई आई टी कानपुर ले चलें? जहाँ हम और तुम पहली बार मिले थे।" मैं फट तैयार हो गया।

हम वीकेंड पर आई आई टी कानपुर गए और रीत के साथ हर उस जगह गए जहाँ कभी हम दोनों घंटों बिताया करते थे। हमें मालूम था कि वो कुछ नहीं समझ रही फिर भी उसे बताते चलते, "ये पापा का होस्टल था", "यहाँ मम्मा का होस्टल था", "यहाँ पापा मम्मा बैठ कर गप्प करते थे।" हम हर उस सड़क पर उसे लिए घूमते रहे जहाँ हम कॉलेज के समय घूमा करते थे। कुछ पुराने मेस वर्कर और सिक्योरिटी गार्ड से मिले तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि हम दोनों अब भी साथ हैं और एक बिटिया भी है। नेहा अपने पीएचडी गाइड से मिलने गई तो मैं रीत के साथ उसकी लैब में चक्कर लगाने लगा। नेहा की मीटिंग लंबी खिंच गयी और रीत ने पॉटी कर दी। उसका डायपर बैग मेरे पास ही था सो मैं उसका डायपर बदलने पुरुष टॉयलेट में गया। वहाँ मौजूद लड़कों को थोड़ा अटपटा लगा लेकिन वो तुरंत मेरी मदद को आगे आए। बड़ी मशक्कत से हमने रीत का डायपर बदला लेकिन उसके कपड़े भी गंदे हो गए थे सो उसके कपड़े भी बदले। वहाँ मौजूद लड़कों में किसी को नहीं लगा कि एक पुरुष टॉयलेट में एक बाप को अपनी बेटी का डायपर नहीं बदलना चाहिए। महिला टॉयलेट में बच्चों के डायपर भी तो बदलती है माताएं। पता नहीं क्यों लेकिन अब मैं रीत के दूर जाने से और घबराने लगा।

हम रविवार को कानपुर से लौटने ही वाले थे कि मुझे मालूम चला कि इंदौर-पटना एक्सप्रेस कानपुर के पास पलट गई है और मध्य प्रदेश सरकार तत्काल कोई अफसर भेज कर मध्य प्रदेश के घायलों और मृतकों को सहायता पहुंचाना चाहती है। चूंकि मैं कानपुर में ही था तो मुझे तत्काल राहत कार्य में लगा दिया गया। हमने कानपुर में और कुछ दिन रुकने का निर्णय लिया। छुट्टी ड्यूटी में बदल चुकी थी। कानपुर ज़िला प्रशासन की मदद से हमने कई लाशों को परिजनों तक पहुंचाया और कई घायलों का इलाज कराया। एक मरणासन्न महिला को एयरलिफ्ट कराकर दिल्ली भी भिजवाया। उस महिला की बहन लगातार मेरा धन्यवाद करती रही थी। तीन दिन बाद हम छतरपुर लौटे। नेहा ने रास्ते में कहा "तुमने तीन दिन अच्छा काम किया, तुम्हें इसके लिए कोई अवार्ड मिलना चाहिए।" अभी छतरपुर पहुंचे ही थे कि भोपाल से फ़ोन आया, "चंद्रमोहन, तुम्हारा ट्रांसफर हो गया है, भोपाल"। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैं बोल पड़ा, "मिल गया अवार्ड।" नेहा की मैटर्निटी लीव खत्म होने से पहले ट्रांसफर हो गया था। अब मैं एक दिन भी रीत से अलग नहीं रहने वाला था।

हम खुशी-खुशी भोपाल आए। इसी बीच मैं दो जुड़वाँ बहनों का मामा भी बन चुका था। सिया और वेदिका ने 17 नवंबर को गुड़िया और गोपाल के घर अवतार लिया। भैया की दो बेटियों के साथ अब आहना, आद्या, अक्षरा (रीत), सिया और वेदिका के साथ मेरी माँ पांच कन्याओं की दादी-नानी बन चुकी थी। मुझसे हंसते हुए बोली - "क्या कह के मांगते हो भगवान से? हर बार बेटी ही आती है?" मैंने तब भी दांत निपोड़ते कहा था, ईश्वर तुम्हें छः बेटियों की दादी-नानी बनाएगा। इधर रीत छः महीने की हो गई। अब और नई हरकतें होने लगीं। दूध के साथ अब खीर और फलों का रस भी खाने लगी। अब उसकी पसंद और नापसंद भी ज़िक्र का विषय हो गई। "मीठा बड़े मन से खाती है", "गाना बहुत पसंद है इसको", "सोने से पहले खुद आलाप लेने लगती है"। रीत की पर्सनालिटी में रोज़ एक नई बात देखने को मिलने लगी। फिर एक दिन उसके दाँत आ गए। पहले नीचे एक दाँत आया और हम उसे एकदंत दयावंत कहकर हंसने लगे। फिर नीचे का दूसरा आया। बिल्कुल धारदार। और कुछ दिनों बाद ऊपर के दो। फिर ऊपर के दो और। छह दांतों के साथ जब रीत हंसती है तो लगता है वर्ल्ड पीस आ गया है, आतंकवाद खत्म हो गया है, गरीबी मिट गई है, शेर और बकरी एक साथ पानी पीने लगे हैं, दुनिया सुधर गई है, सब ओर सुख और शांति है।

एक निर्धारित कैलेंडर के हिसाब से रीत को टीके लगने लगे। मेरी साइंटिस्ट बीवी ने एक लैब एक्सपेरिमेंट की तरह सब डेट्स और टीकों के नाम तो याद कर लिए, लेकिन टीके लगते समय वो सिर्फ एक माँ हो जाती। डॉक्टर के सुई निकालने से पहले नेहा के आँसू निकल जाते। तब रीत को संभालना मेरी ज़िम्मेदारी बन जाती। रीत सुई लगने पर थोड़ा रोती और नेहा बहुत सारा। लेकिन मैं नहीं रोता। बाप को रोना अलाउड नहीं है न। स्ट्रांग पापा कैसे रोए भला। अब पापा क्या बताए कि बिटिया के रोने पर उसका दिल कैसे परखच्चे उड़ता है।

धीरे-धीरे रीत और बड़ी होने लगी। पहले शांत सी पड़े रहने वाली और घंटो तक सोने वाली बच्ची अब घुटनों के बल घर के चक्कर काटने लगी। पहले हम उसे खेल खिलाते थे। धीरे धीरे वो हमें खेल खिलाने लगी। साल भर के होने पर हमने एक बर्थडे पार्टी रखी। का दिन रीत के 11 महीनों के जन्मदिन की तस्वीरों को एक घड़ी की-सी फार्मेशन में लगाया। 01 पर पहले महीने की फ़ोटो और 11 पर ग्यारहवें महीने की फ़ोटो। जन्मदिन के बाद फिर मंदिर में गरीबों को हलवा पूड़ी बाँटीऔर फिर गुरुद्वारे में अरदास की। पर साल भर पहले संत जैसी तल्लीनता से मंदिर और गुरुद्वारे में ध्यानमग्न रहने वाली हमारी बिटिया अब मंदिर और गुरुद्वारे में उधम करने लगी है। कब पर्सनल प्राइड से सोशल एमबरससमेन्ट तक पहुंच गई पता ही नहीं चला। अब हमारा वक़्त सिर्फ "रीत नो", "रीत नहीं", रीत छि छि", "गंदी बात" और ऐसे ही कई रोकटोक वाले जुमले कहने में बीतने लगा है।

रीत के जन्मदिन के खिलौनों से हम सब खूब खेलते हैं। रीत ने अब खड़ा होना और सहारे से चलना शुरू किया है। अब वो मुझे दांत भी काटती है। और उचक कर मेरे पेट पर भी बैठ जाती है। जब ऑफिस से आकर गोद में लेता हूँ तो पहले जेब से कलम और फिर आंखों से चश्मा छीन लेती है। बाहर घूमने के लिए दरवाज़े की ओर इशारा करती है और बात न मानो तो मुंह भी नोच लेती है। लड्डू खिलाओ तो मगन हो जाती है, और दूध पिलाओ तो भागती है। नेहा को मम्ममा, मेरे पापा-मम्मी को दा-दा-दा और मेरे सास-ससुर को ना-ना-ना बोलती है। मुझे भी मम्ममा बोल देती है। अच्छा है, कम से कम वो तो मुझमें और मेरी बीवी में फर्क नहीं करती।

अगले दस दिनों में रीत सवा साल की हो जाएगी, या यूं कहें कि मैं सवा साल का बाप बन जाऊँगा। इन पंद्रह महीनों में समय कैसे बीता पता ही नहीं चला। इन महीनों में शायद देश दुनिया में कुछ खास न बदला हो लेकिन मेरी और नेहा की तो पूरी दुनिया बदल गई।

Sunday, March 12, 2017

Never easy to be a feminist husband

Last night I walked up to my wife and said,  "Did you read what Mira Rajput said. She wants to be a full time mom. And she has a point." My wife was working on her laptop, probably writing a research paper or a making a presentation. She gave me the look that she gives when I utter bullshit. (I got the same look when I bought a treadmill I never used). Wives just know when their husbands are bullshitting. She just said, "Whatever one does, one shouldn't judge the other."

I, being, a typical husband, ignored her and went out to call my mom. She was complaining how after years of taking care of my dad, she still doesn't get the importance she deserves. She has to beg for even 1000 bucks to him. She is presently staying with my sister who works in HR and is presently on maternity leave. Mom said it was such a good decision to get her daughter educated. At least she has the freedom my mom never had.

I thought about my wife's mother too who often complains that she got nothing for her years of tireless service as a homemaker. She is a great cook and always wanted to run her small eatery business but wasn't allowed. Coz her husband was earning enough.

I am not a feminist. It is difficult for a man to be. But I supported my sister in her MBA and fought with my dad to send her to Pune for Higher studies. I never wanted my wife to sit at home and be a housewife. I have always wished for a daughter and now I am fathering one. I wouldn't like my daughter to be a homemaker as well. Yet I am not a feminist.

I was born and brought up in a chauvinist environment. Although me and my sister studied in the same school, and me and my wife studied in the same college, I was always treated better. The fact that my sister or my wife are successful professionals is mostly due to their own grit and their mother's support. Even now when both my wife and my sister are going through motherhood, their moms are helping them raise their kids so that they don't have to quit their jobs. I have often heard my mom as well as my mom in law say, "It doesn't matter how long I have to take care of your kids, but you must continue working. Or else the man will never treat you well."

They are right. We men have never been taught to treat women equally. When the fact remains that women can do much more than a man. My wife can take care of the house even after her job but I can't. Not that I don't want to, but I am not as good a multitasker as her. My weekend plan is mostly to relax while her weekend plan is to do pending household chores. While she can easily stay away from me without any discomfort, I am totally dependent on her.

But the fault is not entirely of us men. Our mothers are also to blame. When me and my sister were both being educated, she showed interest in cooking and she was allowed to learn it. I showed interest too, but other than few random dishes, I never was asked to cook a whole meal. I am no longer  a cook. My mother in law who takes care of my daughter and our house nowadays always prefers that I get my food on the table and don't have to venture in the kitchen myself. She thinks it would be inappropriate if I have to do some work despite her presence. Men are already lazy beings. And when pampered by such irrational mothers, the laziness gets justified.

I always wanted my sister to work but in all her quarrels with her husband, I have supported her husband. I have always wanted my wife to work, but I constrained her to live in my house and since I am confined to work in one particular state of India, I forced her to quit her assignment in Europe and search for one in this Indian state instead. I have tried to be feminist but I am still a chauvinist. When I allowed my wife to go to Germany, everyone applauded my gesture, as if I had the authority to allow or disallow her. And when I forced her to come back, no one criticized me. Only later did I come to know that both my mother and my mother-in-law supported my wife and not me in that dispute.

Today when I am the father of a daughter, I want her to break all the boundaries of society and sail free wherever she wants. I wanted the same for my sister. I also want the same for my wife. But I still am a chauvinist from within. It is years and years of upbringing in a patriarchal setup that keeps justifying my chauvinist behavior. The justifying of Mira Rajput's comments last evening was my latest such behaviour.

It has taken me one full day and two counter articles to accept that I was wrong. That everytime a woman sits home, she kills the chance of working for ten more women. The economy needs more working women than there are presently. And women need much more education and support than they get. And chauvinists like me need more correction in their mindset. I shall not become a feminist by just supporting my sister or my wife or educating my daughter. I will become one only when I accept that what they go through is tougher than what I have gone through or any man will ever go through. I will become a feminist when I stop glorifying mothers who are great cooks and homemakers and actually glorify women who have made a mark in their professional fields.

But chauvinism and patriarchy don't go in a day. It takes a lot of unlearning of the sick values of supremacy taught to us in childhood. I hope this generation of working women are able to teach their sons to be better husbands and less chauvinists. They should also keep teaching their husbands. I, meanwhile, shall keep trying to correct myself.

Monday, June 20, 2016

रिमार्केबल ज़िद्द

पापा को बोलते हुए पिछले चार बरस से नहीं देखा। 2012 को हुए उस ब्रेन स्ट्रोक ने हमेशा के लिए बोलने की शक्ति खत्म कर दी। स्पीच थेरेपी साल भर के बाद बंद करा दी। हाँ दाहिने हाथ और पैर में काफी सुधार हुआ। पिछले साल जब लीलावती में डॉक्टर ने देखा तो Remarkable Recovery कहे बिना न रह सके। और इस रिमार्केबल रिकवरी के पीछे सिर्फ दवाओं और दुआओं का असर नहीं था; पापा की इच्छाशक्ति और ज़िद का भी बहुत बड़ा योगदान रहा।

स्ट्रोक के वक़्त पापा करीब 90 किलो के थे। इतने भारी मरीज़ को उठाना, बिठाना, चलाना, नहलाना सब मुश्किल होता था। 2 साल पुरानी बात है। छठ का त्यौहार था। पापा छड़ी की मदद से चलना सीख चुके थे। मम्मी पापा के साथ छठ में अर्घ्य देने पास के एक तालाब तक गई। पैदल लौटते वक्त पापा अचानक थक गए। उनके पैर ही न उठे। उन्होंने इशारों में कहा कि अब चला नहीं जाता, कोई गाडी लाओ। मम्मी ने वहीँ से गुज़र रहे किसी कार वाले से मदद मांगी और पापा को घर लाई। लेकिन इसने पापा के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाई।

कुछ दिनों बाद सड़क पर चलते वक़्त पापा का एक पैर एक गढ्ढे में चला गया और माँ के देखते देखते पापा सड़क पर गिर गए। मम्मी 90 किलो के उस शरीर को उठाने में असमर्थ रही। पापा भी खुद के भारी शरीर को एक हाथ और एक पैर के सहारे न उठा सके। आस पास गुज़र रहे लोगों की मदद से पापा को खड़ा किया जा सका। लेकिन पापा इस घटना से और भी लज्जित हो गए। माँ ने फरमान जारी कर दिया कि "कोई ज़रुरत नहीं है अब कहीं वाक करने की। इतने भारी हैं कि हम संभाल नहीं सकते आपको। घर बैठे रहिए।"

पापा ने कुछ नहीं कहा। कह भी तो नहीं सकते थे। लेकिन उन्होंने दिन में सिर्फ एक बार भोजन करना शुरू कर दिया। मम्मी को लगा नाराज़ है या दुखी। लेकिन पापा ने ज़िद्द पकड़ ली कि एक बार से ज़्यादा खाना नहीं खाऊंगा। और अपनी पैदल चलने की प्रैक्टिस भी नहीं छोड़ी। लगभग एक साल बाद पापा का लगभग 25 किलो वज़न घट चुका था। पापा की जो तोंद मैंने बचपन से अब तक निरंतर देखी थी, वो गायब हो गयी।
पापा अब अपने हलके शरीर से कम्फ़र्टेबल हो गए। बगैर छड़ी के न सिर्फ चलने लगे बल्कि अब सीढियां चढ़ना उतरना भी आसान होने लगा। जिस ज़िद्द ने पापा को अस्पताल से ज़िंदा बाहर निकाला था उसी ज़िद्द ने पापा को अब इतना फिट कर दिया की ज़मीन पर पड़ा जूता वो खुद झुक कर उठा सकते हैं। उनका आत्मविश्वास और बढ़ गया।

कुछ दिनों पहले एक और घटना हुई। पापा के बोल न पाने की वजह से रोज़ कोई न कोई ड्रामा होता रहता है और अब हम सब को इस डम्ब शराड्स की आदत हो गयी है। हमने बड़ा चाहा कि पापा बाएँ हाथ से लिखकर अपनी बात कह सकें लेकिन 65 की उम्र में आधे दिमाग में एक क्लॉट के साथ ये पापा कर नहीं पाए। एक दिन एक बैंक से मालूम चला कि आपका खाता बंद हो गया है। पापा को बैंक ले जाया गया और खाता चालू हो गया। पापा ने जोश में आकर किसी का एक पेमेंट चेक से कर दिया। साइन की जगह अंगूठे का निशान लगा दिया। पर वो चेक एनकेश नहीं हुआ। बैंक ने कहा कि पापा खुद बैंक आएं, बैंक के किसी अन्य खातेदार को गरंटी के लिए लाएं। इस बीच बैंक के किसी कर्मचारी ने पापा मम्मी को काफी परेशान किया। एक चेक एनकेश होने में 2 घंटे लग गए। पैसे दे तो दिए गए लेकिन वो अंगूठा छाप जैसा ट्रीटमेंट पापा को खटक गया।

मैंने कहा कि बुरा मत मानिए, मैं उस बैंक से आपका खाता बंद करवा दूंगा। मम्मी ने फिर गुस्से से कहा कि "बैठे रहते हैं बाएं हाथ से साइन नहीं कर सकते क्या?" एक बार फिर पापा ने ज़िद्द पकड़ ली। एक पुराना कैंसल चेक मिला उन्हें जिसपर उनके साइन थे। एक नौसिखिये बच्चे की माफिक वे अपने ही साइन की नक़ल करना शुरू करने लगे। जिस बाएं हाथ से 65 बरस में कभी कलम नहीं पकड़ी, उसी बाएं हाथ से अपने ही साइन को सैकड़ों बार कागज़ पर लिखना शुरू कर दिया। समय लगा, लगभग 2 महीने की लगातार प्रैक्टिस के बाद उन्होंने अपने साइन को बाएं हाथ से करना शुरू कर दिया। पर उसके लिए उन्हें वो पुराना चेक और उस पर किया साइन देखना पड़ता।

आज मैं उन्हें लेकर बैंक गया ये सोचकर कि खाता बंद कर दिया जाए। अंगूठा छाप होने की वजह से न तो पापा चेक से काम कर पाते न ही बैंक अंगूठा छाप व्यक्ति को atm कार्ड देने के लिए तैयार था। लेकिन पापा ने कहा (इशारों में) कि चालीस साल से गए बैंक खाता है, इसे बंद नहीं करेंगे। उन्होंने ज़िद्द की कि मैं बैंक वालों को कन्विंस करूँ कि अब वो बाएं हाथ के हस्ताक्षर से खाता चलाएंगे। मैंने भी सोचा बात करने में क्या हर्ज़ है।

मैंने बैंक मेनेजर से पूरी कहानी बताई। उसने ये उपाय बताया कि आप अपने पिता के साथ जॉइंट खातेदार बन जाइए। और फिर आप खाता चलाइये। पापा की कोई ज़रूरत नहीं। पापा ने थोड़ी हिचकिचाहट से बात मान ली। उन्होंने शायद ये मान लिया की कमान बेटे के हाथ में ही दे दी जाए। शायद अब वो खुद सब कुछ करने लायक नहीं रहे। पता नहीं क्यों मुझे उनकी उस मौन स्वीकृति ने थोडा हिला दिया। मैंने बैंक मेनेजर से कहा एक बार आप पापा को बाएं हाथ से साइन करते देख लें। अगर आप कन्विंस न हों तो मैं जॉइंट खातेदार बन जाऊंगा। पापा के चेहरे पर आत्मविश्वास छलक आया। जेब से कलम निकाली, वो कैंसल चेक सामने रखा और अपने साइन की हूबहू नक़ल बाएँ हाथ से एक सादे कागज़ पर कर डाले। बैंक मेनेजर और उनका स्टाफ हतप्रभ पापा को कलम चलाते देखते रहे। बैंक मेनेजर कह पड़ा, Remarkable Improvement. एक बार फिर पापा ने अपनी ज़िद्द से ये रिमार्केबल वाला खिताब पाया।

मैंने एक आखिरी बार मेनेजर से कहा, "मैंने और मेरे परिवार ने बड़ी शिद्दत से इनके खोये आत्मसम्मान को वापस लाने का प्रयास किया है। अगर आज बागडोर बेटे के हाथ में आ गई तो पापा मन से रिटायर्ड महसूस करने लगेंगे। प्लीज आप पापा को ही इस खाते के सभी अधिकार दे दें।" मेनेजर मान गया। उसने एक आवेदन लिखवाया और कहा कि अब इनकी ये बाएं हाथ वाले साइन को ही ऑफिशल साइन मान लेंगे। कल से ये वापस इस खाते को वैसे ही चला पाएंगे जैसे स्ट्रोक के पहले चलाते थे। अब इन्हें एटीएम कार्ड भी जारी कर दिया जाएगा। अब बैंक के लिए ये अंगूठा छाप नहीं हैं।

पापा अपने लौटे स्वाभिमान से हर्षित हैं। लौटते वक्त वो एक मिठाई की दूकान में घुस गए। इशारे इशारे में ही 2-3 किलो मिठाई आर्डर कर डाली और जब उसने 2000 का बिल दिया तो बड़ी शान से बाईं जेब से चार 500 के कड़क नोट निकाले और दे डाले। वैसे ही जैसे हमेशा किया करते थे। मिठाई दूकान वाला भी ऐसे मुस्करा उठा जैसे मन ही मन रिमार्केबल बोल रहा हो।