Friday, June 18, 2010

चाँद का टुकड़ा

कल रात चाँद तोड़ लिया मैंने,
सजा कर रख डाला मेज़ के ऊपर
बत्तियां बुझा दी कमरे की,
और देखता रहा चमकते चाँद को रात भर

पास से देखो, तो पता चलता है
चाँद के दाग बड़े गहरे हैं
जैसे बचपन में चेचक हुआ हो
और दवा के असर करने से पहले दाग छोड़ गया हो

हाथ लगाओ, तो चुभता है उसे
दाग सूखे - से हैं, पर दर्द अब भी है
कोई गहरी चोट आई होगी कभी,
घाव भरने में वक़्त लगा तो दर्द गहराता गया

हाल पूछो, तो कराहता है चाँद
दबी सहमी आवाज़ में बुदबुदाता है
दाग का राज़ पूछो तो सहम उठता है
बहती आँखों से किस्सा सुनाता जाता है

बन के बेटी इंसान की , जन्मा था कहीं
कोसते बाप ने गरम चिमटा लगा डाला था
जले का दाग रह गया चिमटे से...
जवानी शौहर के जूते खाकर गुज़री
कुछ नए दाग और बनते गए...
बुज़ुर्ग होने पर बेटे ने कसर निकाल ली
जो भी दाग थे, गहराते गए...

आँख भर आई बात कहते-कहते,
मेज़ की चादर गीली हो गयी आंसुओं से
सिसकती आवाज़ में कह पड़ा चाँद मुझसे,
"फिर किसी मासूम बच्ची को चाँद का टुकड़ा न कहना"