Thursday, October 5, 2017

सवा साल का बाप

चौदह महीने और तीन हफ्ते पहले मैं एक बिटिया का बाप बना। 15 अक्टूबर को अक्षरा (रीत) पूरे 15 महीने की हो जाएगी। मुझे इतना वक्त लग गया अपने भावों को लिखने में। या यूं कहें कि अब थोड़ी फुर्सत मिली।

14 जुलाई 2016 की रात जब मैं नेहा को लेकर मैटर्निटी क्लिनिक गया था तो लगभग ये तय था कि अगली सुबह नेहा की सर्जरी होगी और एक बच्चे का जन्म होगा। मेरी माँ ने ढूंढ कर एक ऐसा दिन निकाला था जिस दिन हरि शयनी एकादशी होने वाली थी। वो दिन जिस दिन विष्णु भगवान क्षीर सागर में महीनों के लिए हाइबरनेट करने चले जाते हैं। क्योंकि नॉर्मल डिलीवरी नहीं थी इसलिए हमें प्लानिंग का वक्त मिल गया था। होने वाली बच्ची के नाना नानी और परनानी (नेहा की दादी) के साथ साथ दादा-दादी (मेरे माँ बाप) भी भोपाल में थे। और इस शहर से हम सब अनजान थे। अभी 6 महीने पहले ही तो एक किराए के मकान में नेहा शिफ्ट हुई थी और मैं भोपाल से 6 घंटे की दूरी पर छतरपुर जिले में नौकरी कर रहा था। घर की लगभग सभी औरतों ने अपने-अपने टोटके से ये घोषित कर दिया था कि लड़का ही होगा। भला हो PCPNDT कानून का जो ये सरप्राइज खुला न था।

जैसे लोग हर चुनाव के पहले ओपिनियन या एग्जिट पोल करते हैं वैसे ही इस एग्जिट पोल का नतीजा था लड़का। और लॉजिक भी एक से एक - "बहु का पेट आगे की ओर बढ़ रहा है, बेटा होगा", "बेटी को उल्टियां कम आ रही हैं, बेटा होगा" और न जाने क्या क्या। मैं अकेला इन सब के बीच ये उम्मीद कर रहा था कि बेटी हो। जिन जिन कारणों से लोग बेटा चाहते हैं, ठीक उन्हीं कारणों से मुझे बेटी चाहिए थी। स्वार्थ, बुढ़ापे की लाठी, और समाज का दबाव जैसे कारण लोगों को बेटे की चाहत का justification लगते हैं, मुझे बेटी के चाहत के। बेटा या तो मम्मा'ज़ बॉय बनेगा या जोरू का ग़ुलाम; जो भी बने बाप का बेटा न होगा। बिटिया तो ताउम्र बिटिया ही रहेगी। अपनी माँ या सास से उसकी बने या न बने, बाप को वो हीरो ही मानेगी। इसलिए बावजूद इसके कि उल्टियां कैसी थी और पेट किस दिशा में बढ़ा था, मन ही मन मुझे बेटी चाहिए थी।

15 जुलाई की सुबह 9 बजे जब नेहा को आपरेशन थिएटर में ले गए तो अपने उसी खुर्राट अंदाज़ में उसने thumbs up किया जिस अंदाज में वो हमेशा करती है। शायद घबराहट वो चेहरे पर नहीं आने देना चाहती थी। उसके अंदर जाते-जाते मेरे और नेहा के माँ बाप और नेहा की दादी OT के बाहर डेरा जमा चुके थे। करीब पैंतालीस मिनट तक कोई खबर न आई। सबको हल्की-हल्की घबराहट थी पर कोई कुछ बोल नहीं रहा था ऐसा लग रहा था मानो सबका रिजल्ट आने वाला हो। लगभग पौने दस पर एक डॉक्टर OT से बाहर आया और पूछा "नेहा के साथ कौन है?" बैठे तो आधा दर्जन लोग थे लेकिन घटना की ज़िम्मेदारी लेते हुए मैं आगे बढ़ा। डॉक्टर ने फट हाथ मिलाया और कहा, "Congratulations. It's a girl. 4.1 kilos". मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैं OT के बाहर ऐसे उछल-उछल कर यस यस कहते हुए एयर-पम्पिंग कर रहा था जैसे इंडिया फिर से वर्ल्ड कप जीत गई हो। मेरी माँ और मेरी सास के चेहरे पर खुशी तो थी लेकिन उनकी भविष्यवाणी फैल हो जाने का रंज भी। मेरी wish ने सबकी भविष्यवाणी फैल कर दी थी। माँ ने तपाक से कहा, "भगवान ने सुनी तुम्हारी ही। बहुत मन से बेटी मांगे थे लगता है।" मैं भी धोनी की तरह कूल बनते हुए मुस्करा रहा था कि फाइनल छक्का कौन लगाया, बताओ?

दस मिनट बाद नर्स आई। उसकी गोद में रुई के गोले जैसी मेरी गोल मटोल बेटी थी। सर पर घने-घने बाल। सुंदर बालों का क्रेडिट तुरंत नारियल पानी को दे दिया गया और नारियल पानी पिलाने का क्रेडिट नेहा की माँ को। सबने बेटे का ऐसा माहौल बना रखा था कि बेटी के नाम भी अभी फाइनल नहीं थे, शॉर्टलिस्ट भर हुए थे। नर्स ने मास्टरनी जैसा पूछा, "पहले कौन उठाएगा?" और हम आधा दर्जन लोग स्कूल के बच्चों की तरह लाइन में लग गए। हाइट वाइज नहीं, ऐज वाइज। नेहा की दादी, मेरे पापा, मेरे ससुर, मेरी माँ, मेरी सास और मैं। अस्सी, साठ और पचास के दशकों से प्यार पा चुकने के बाद बिटिया मेरी गोद में आई। उसे बिल्कुल नहीं मालूम था कि वो कहाँ है, वो बस रोए जाती थी। और हम देखते न अघाते थे। पापा ने तुरंत इशारों में आदेश दिया कि अस्पताल में मिठाई बांटी जाए। किसी ने नर्स को बख्शीश दे दी। कोई बिटिया के लिए पहले से तैयार कमरे को और तैयार करने लगा। हम सब भूल ही गए कि नेहा अब भी अंदर है। कुछ देर बाद नेहा बाहर आई। लेटे-लेटे ही उसने चुटकी ली, "आज खुश तो बहुत होगे तुम? बेटी मिल गई तुम्हें।" मैंने पूरी बेशर्मी से दांत निपोड़ते हुए कहा, "बहुत ही ज़्यादा"।

फिर बधाइयों, फ़ोन कॉल्स और मिठाई बांटने का दौर चला। हमारे घर में आधी पंडित, आधी पंजाबी बिटिया का आगमन हो चुका था। माँ (दादी) ने छठी करने की ठानी। पंडित जी बुलाए गए और एक छोटे से समारोह में जन्म के छठे दिन पूजा हुई और खीर पूड़ी के मज़े लिए गए। दादी (परनानी) ने कहा कि तेरहवें दिन गुरुद्वारे में अरदास होगा। सो वो भी हुआ। नेहा की माँ (नानी) ने कहा कि मंदिर के बाहर गरीबों को चालीसवें दिन हलवा पूड़ी बांटेंगे। सो वो भी बाँटे। सबने अपने-अपने तरीके से अपने-अपने भगवान को एक स्वस्थ बेटी का धन्यवाद दिया।

मुझे पैटर्निटी लीव के बाद छतरपुर लौटना पड़ा। लेकिन बिटिया से दूरी बर्दाश्त कहाँ थी। खैर, इसी बीच बेटी का नाम फाइनल हुआ। नानी की चाह पर "रीत" रखा गया और मेरे और नेहा की पसंद पर "अक्षरा"। माँ और बाप के परिवारों के संगम से जन्म प्रमाण पत्र पर नाम छपा, "अक्षरा आर्या ठाकुर" आत्मजा नेहा आर्या एवं चंद्रमोहन ठाकुर। सब रीत को रीत बुलाने लगे। अब अचानक वो बस एक बच्ची नहीं थी। उसकी एक पर्सनालिटी थी। 'रीत ऐसा करती है', 'रीत ने सुसु कर दिया', 'रीत रो रही है', 'रीत किधर देख रही हो?' 'रीत पापा को मिस करती है?' और न जाने क्या क्या बातें सभी रीत से करने लगे।

महीने भर की दूरी के बाद फाइनली नेहा रीत के साथ छतरपुर आई। बाकी की मैटर्निटी लीव वहीं बिताने का फैसला हुआ। रीत अब मुस्काने लगी थी। अब शायद उसे हम दिखने भी लगे थे। जैसे हर माँ बाप पागलपन करते होंगे, हमने भी शुरू किया - हर महीने रीत का जन्मदिन। पहले महीने पर फूलों से एक लिखा और एक छोटे से कपकेक के साथ रीत की तस्वीर ली। मैं 15 अगस्त के कारण मिस कर गया। दूसरे महीने मैं था। इस बार फूलों से दो लिखा और दो कपकेक्स के साथ तस्वीर खिंची। तीसरे महीने के जन्मदिन पर मैं फिर बाहर था। मैंने तय किया कि अब चौथे से बारहवें महीने तक मैं कभी उसका बर्थडे मिस नहीं करूंगा। लेकिन मैटर्निटी लीव तो 6 महीने में खत्म हो जाएगी, उसके बाद क्या? मेरे दिमाग में उथल पुथल मचने लगी।

मैंने तय किया कि चाहे जैसे भी हो नेहा की मैटर्निटी लीव खत्म होने से पहले मैं भोपाल ट्रांसफर करवा लूंगा। लेकिन भोपाल के आला अफसर तो मुझे जानते भी नहीं थे। ऐसे में इतने जूनियर अफसर की कौन सुनेगा? और मैं कोई माँ तो हूँ नहीं कि बच्चे को मेरी ज़रूरत है और इसलिए मैं दूर नहीं रह सकता। इस ग्राउंड पर तो ट्रांसफर होना मुश्किल ही लग रहा था। पर ज़रूरत तो मेरी थी कि मैं उससे दूर नहीं रहना चाहता था। मैंने हर संभव व्यक्ति से ये गुहार लगानी शुरू की कि मुझे भोपाल ट्रांसफर कर दिया जाए। मेरे कमिश्नर मनोहर अगनानी साब ने मेरी स्थिति समझी। खुद एक बेटी के बाप और एक उम्दा फेमिनिस्ट और ह्यूमनिस्ट होने के नाते उन्होंने माना कि बच्ची के साथ रहना पिता का भी अधिकार है और मुझे अपनी बात हर संभव स्तर पर रखनी चाहिए। उन्होंने अपने पद का उपयोग कर मेरी अर्ज़ी मुख्यमंत्री जी और उनके प्रमुख सचिव तक पहुंचाई। मैं स्वयं अपनी बात सामान्य प्रशासन के सचिव एवं मुख्य सचिव तक कहने गया। लेकिन आश्वासन के सिवा कुछ हाथ न लगा।शायद ये बात किसी के गले नहीं उतरी की बाप को बच्चे के जन्म पर ट्रांसफर लेने का क्या मतलब? ये सुविधा तो केवल महिला कर्मियों को मिलनी चाहिए। रीत पाँच महीने की होने लगी। बिछड़ने का वक्त करीब आ गया। और मैं एक दिन रो पड़ा। नेहा ने चिढ़ते हुए कहा, "मुझसे अलग रहते हुए तो कभी नहीं रोए ऐसे?" लेकिन उसने मेरा दिल रखने को ये भी कहा "एक बार रीत को आई आई टी कानपुर ले चलें? जहाँ हम और तुम पहली बार मिले थे।" मैं फट तैयार हो गया।

हम वीकेंड पर आई आई टी कानपुर गए और रीत के साथ हर उस जगह गए जहाँ कभी हम दोनों घंटों बिताया करते थे। हमें मालूम था कि वो कुछ नहीं समझ रही फिर भी उसे बताते चलते, "ये पापा का होस्टल था", "यहाँ मम्मा का होस्टल था", "यहाँ पापा मम्मा बैठ कर गप्प करते थे।" हम हर उस सड़क पर उसे लिए घूमते रहे जहाँ हम कॉलेज के समय घूमा करते थे। कुछ पुराने मेस वर्कर और सिक्योरिटी गार्ड से मिले तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ कि हम दोनों अब भी साथ हैं और एक बिटिया भी है। नेहा अपने पीएचडी गाइड से मिलने गई तो मैं रीत के साथ उसकी लैब में चक्कर लगाने लगा। नेहा की मीटिंग लंबी खिंच गयी और रीत ने पॉटी कर दी। उसका डायपर बैग मेरे पास ही था सो मैं उसका डायपर बदलने पुरुष टॉयलेट में गया। वहाँ मौजूद लड़कों को थोड़ा अटपटा लगा लेकिन वो तुरंत मेरी मदद को आगे आए। बड़ी मशक्कत से हमने रीत का डायपर बदला लेकिन उसके कपड़े भी गंदे हो गए थे सो उसके कपड़े भी बदले। वहाँ मौजूद लड़कों में किसी को नहीं लगा कि एक पुरुष टॉयलेट में एक बाप को अपनी बेटी का डायपर नहीं बदलना चाहिए। महिला टॉयलेट में बच्चों के डायपर भी तो बदलती है माताएं। पता नहीं क्यों लेकिन अब मैं रीत के दूर जाने से और घबराने लगा।

हम रविवार को कानपुर से लौटने ही वाले थे कि मुझे मालूम चला कि इंदौर-पटना एक्सप्रेस कानपुर के पास पलट गई है और मध्य प्रदेश सरकार तत्काल कोई अफसर भेज कर मध्य प्रदेश के घायलों और मृतकों को सहायता पहुंचाना चाहती है। चूंकि मैं कानपुर में ही था तो मुझे तत्काल राहत कार्य में लगा दिया गया। हमने कानपुर में और कुछ दिन रुकने का निर्णय लिया। छुट्टी ड्यूटी में बदल चुकी थी। कानपुर ज़िला प्रशासन की मदद से हमने कई लाशों को परिजनों तक पहुंचाया और कई घायलों का इलाज कराया। एक मरणासन्न महिला को एयरलिफ्ट कराकर दिल्ली भी भिजवाया। उस महिला की बहन लगातार मेरा धन्यवाद करती रही थी। तीन दिन बाद हम छतरपुर लौटे। नेहा ने रास्ते में कहा "तुमने तीन दिन अच्छा काम किया, तुम्हें इसके लिए कोई अवार्ड मिलना चाहिए।" अभी छतरपुर पहुंचे ही थे कि भोपाल से फ़ोन आया, "चंद्रमोहन, तुम्हारा ट्रांसफर हो गया है, भोपाल"। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैं बोल पड़ा, "मिल गया अवार्ड।" नेहा की मैटर्निटी लीव खत्म होने से पहले ट्रांसफर हो गया था। अब मैं एक दिन भी रीत से अलग नहीं रहने वाला था।

हम खुशी-खुशी भोपाल आए। इसी बीच मैं दो जुड़वाँ बहनों का मामा भी बन चुका था। सिया और वेदिका ने 17 नवंबर को गुड़िया और गोपाल के घर अवतार लिया। भैया की दो बेटियों के साथ अब आहना, आद्या, अक्षरा (रीत), सिया और वेदिका के साथ मेरी माँ पांच कन्याओं की दादी-नानी बन चुकी थी। मुझसे हंसते हुए बोली - "क्या कह के मांगते हो भगवान से? हर बार बेटी ही आती है?" मैंने तब भी दांत निपोड़ते कहा था, ईश्वर तुम्हें छः बेटियों की दादी-नानी बनाएगा। इधर रीत छः महीने की हो गई। अब और नई हरकतें होने लगीं। दूध के साथ अब खीर और फलों का रस भी खाने लगी। अब उसकी पसंद और नापसंद भी ज़िक्र का विषय हो गई। "मीठा बड़े मन से खाती है", "गाना बहुत पसंद है इसको", "सोने से पहले खुद आलाप लेने लगती है"। रीत की पर्सनालिटी में रोज़ एक नई बात देखने को मिलने लगी। फिर एक दिन उसके दाँत आ गए। पहले नीचे एक दाँत आया और हम उसे एकदंत दयावंत कहकर हंसने लगे। फिर नीचे का दूसरा आया। बिल्कुल धारदार। और कुछ दिनों बाद ऊपर के दो। फिर ऊपर के दो और। छह दांतों के साथ जब रीत हंसती है तो लगता है वर्ल्ड पीस आ गया है, आतंकवाद खत्म हो गया है, गरीबी मिट गई है, शेर और बकरी एक साथ पानी पीने लगे हैं, दुनिया सुधर गई है, सब ओर सुख और शांति है।

एक निर्धारित कैलेंडर के हिसाब से रीत को टीके लगने लगे। मेरी साइंटिस्ट बीवी ने एक लैब एक्सपेरिमेंट की तरह सब डेट्स और टीकों के नाम तो याद कर लिए, लेकिन टीके लगते समय वो सिर्फ एक माँ हो जाती। डॉक्टर के सुई निकालने से पहले नेहा के आँसू निकल जाते। तब रीत को संभालना मेरी ज़िम्मेदारी बन जाती। रीत सुई लगने पर थोड़ा रोती और नेहा बहुत सारा। लेकिन मैं नहीं रोता। बाप को रोना अलाउड नहीं है न। स्ट्रांग पापा कैसे रोए भला। अब पापा क्या बताए कि बिटिया के रोने पर उसका दिल कैसे परखच्चे उड़ता है।

धीरे-धीरे रीत और बड़ी होने लगी। पहले शांत सी पड़े रहने वाली और घंटो तक सोने वाली बच्ची अब घुटनों के बल घर के चक्कर काटने लगी। पहले हम उसे खेल खिलाते थे। धीरे धीरे वो हमें खेल खिलाने लगी। साल भर के होने पर हमने एक बर्थडे पार्टी रखी। का दिन रीत के 11 महीनों के जन्मदिन की तस्वीरों को एक घड़ी की-सी फार्मेशन में लगाया। 01 पर पहले महीने की फ़ोटो और 11 पर ग्यारहवें महीने की फ़ोटो। जन्मदिन के बाद फिर मंदिर में गरीबों को हलवा पूड़ी बाँटीऔर फिर गुरुद्वारे में अरदास की। पर साल भर पहले संत जैसी तल्लीनता से मंदिर और गुरुद्वारे में ध्यानमग्न रहने वाली हमारी बिटिया अब मंदिर और गुरुद्वारे में उधम करने लगी है। कब पर्सनल प्राइड से सोशल एमबरससमेन्ट तक पहुंच गई पता ही नहीं चला। अब हमारा वक़्त सिर्फ "रीत नो", "रीत नहीं", रीत छि छि", "गंदी बात" और ऐसे ही कई रोकटोक वाले जुमले कहने में बीतने लगा है।

रीत के जन्मदिन के खिलौनों से हम सब खूब खेलते हैं। रीत ने अब खड़ा होना और सहारे से चलना शुरू किया है। अब वो मुझे दांत भी काटती है। और उचक कर मेरे पेट पर भी बैठ जाती है। जब ऑफिस से आकर गोद में लेता हूँ तो पहले जेब से कलम और फिर आंखों से चश्मा छीन लेती है। बाहर घूमने के लिए दरवाज़े की ओर इशारा करती है और बात न मानो तो मुंह भी नोच लेती है। लड्डू खिलाओ तो मगन हो जाती है, और दूध पिलाओ तो भागती है। नेहा को मम्ममा, मेरे पापा-मम्मी को दा-दा-दा और मेरे सास-ससुर को ना-ना-ना बोलती है। मुझे भी मम्ममा बोल देती है। अच्छा है, कम से कम वो तो मुझमें और मेरी बीवी में फर्क नहीं करती।

अगले दस दिनों में रीत सवा साल की हो जाएगी, या यूं कहें कि मैं सवा साल का बाप बन जाऊँगा। इन पंद्रह महीनों में समय कैसे बीता पता ही नहीं चला। इन महीनों में शायद देश दुनिया में कुछ खास न बदला हो लेकिन मेरी और नेहा की तो पूरी दुनिया बदल गई।