जानता हूँ, थक गए हो
इस समय की मार से
जानता हूँ, क्षत-विक्षत हो
अरि के असि की धार से
घाव मत देखो अभी
बस वार पर ही ज़ोर दो
हिल गई है नींव दुख की
एक धक्का और दो
आज तक लड़ते रहे तुम
शस्त्र मत छोड़ो अभी
रक्त बहने दो धरा पर
साँस न तोड़ो अभी
टूटती हो साँस 'गर तो
आस की एक डोर दो
हिल गई है नींव दुख की
एक धक्का और दो
विजय हो या वीरगति हो
ख्याति मिल कर ही रहे
आखिरी दम तक लड़ा वो
अखिल जग ये ही कहे
पीर का पर्वत खडा जो
इक बार फिर झकझोर दो
हिल गई है नींव दुख की
एक धक्का और दो.
(यह कविता मैने रामधारी सिंह 'दिनकर' की कविता "मंज़िल दूर नहीं" से प्रेरित होकर लिखी है)