स्वप्न या सफलता
माना छाँव बहुत शीतल है,
तन भी है कुछ थका हुआ।
घना वृक्ष जो खडा सिरहाने,
है फल-फूलों से लदा हुआ।
मिला है इतना सब इस पग पर
कि सन्तुष्टि पा जाऊँ।
पर क्या नीड़ बनाऊँ यहीं,
या फिर आगे बढता जाऊँ ?
सब कुछ ही तो प्राप्त यहाँ
साधन सारे सुख-सुविधा के।
फिर क्यूं उठते प्रश्न ज़हन में?
कैसे पल हैं ये दुविधा के?
स्वप्न अगर साकार न हो,
तो क्या सन्तोष नहीं होता?
पा कर भी इतना सब कुछ,
क्यों मैं उस सपने को रोता?
सपना न साकार हुआ, पर
सफल अभी भी कहलाता।
फिर क्यूं ये मन बेचैन मेरा
मुझको रह-रह कर झुन्झलाता?
"सन्तोष न कर तू, ऐ राही!
सुख में न अभी तू भरमाना।
जिसने साकार किया सपना,
आनन्द असल उसने जाना।"
माना छाँव बहुत शीतल है,
तन भी है कुछ थका हुआ।
घना वृक्ष जो खडा सिरहाने,
है फल-फूलों से लदा हुआ।
मिला है इतना सब इस पग पर
कि सन्तुष्टि पा जाऊँ।
पर क्या नीड़ बनाऊँ यहीं,
या फिर आगे बढता जाऊँ ?
सब कुछ ही तो प्राप्त यहाँ
साधन सारे सुख-सुविधा के।
फिर क्यूं उठते प्रश्न ज़हन में?
कैसे पल हैं ये दुविधा के?
स्वप्न अगर साकार न हो,
तो क्या सन्तोष नहीं होता?
पा कर भी इतना सब कुछ,
क्यों मैं उस सपने को रोता?
सपना न साकार हुआ, पर
सफल अभी भी कहलाता।
फिर क्यूं ये मन बेचैन मेरा
मुझको रह-रह कर झुन्झलाता?
"सन्तोष न कर तू, ऐ राही!
सुख में न अभी तू भरमाना।
जिसने साकार किया सपना,
आनन्द असल उसने जाना।"