मैं चाय नहीं पीता। और ये मेरी सबसे बड़ी मुसीबत है। ऐसा नहीं है कि मुझे चाय पसंद नहीं है। मुझे हर मीठी चीज़ पसंद आती है। लेकिन चाय मुझे कुछ खास नहीं भाती। न तो उसे पी कर मुझे कोई ऊर्जा मिलती है और न उससे मेरी थकान भागती है। हाँ! अगर ठंड बहुत हो तो एक गरम चाय का कप मैं इंकार नहीं करता। फिर भी चाय मेरे लिए सिर्फ एक गरम पेय से ज़्यादा नहीं है और उसकी जगह अगर गरम दूध भी मिल जाए तो भी काम चल जाए।
लेकिन अफसोस ये है कि मेरे आस पास बाकी लोग बहुत चाय पीते हैं। और चाय भी सबको अपने-अपने प्रकार की चाहिए। अगर आप चाहें तो लोगों की पसंद की चाय के आधार पर उनकी पर्सनलिटी का पता लगा सकते हैं। मेरे पापा और भैया काफी मीठी चाय पीते हैं और दोनों ही ज़िंदगी को लेकर कभी कोई खास टेंशन नहीं लेते जबकि मेरी बहन और पत्नी कम चीनी और तेज़ पत्ती की चाय पीती हैं और दोनों है भी काफी तेज़। कुछ लोगों को कुल्हड़ की चाय में स्वाद आता है और कुछ लोगों को फाइव स्टार होटलों में मिलने वाली 'दूध-अलग-चीनी-अलग' वाली चाय में। गरीब आदमी शरीर की थकावट मिटाने को चाय पीता है और अमीर मन को आराम पहुंचाने के लिए। ज़्यादातर लोगों को चाय की ऐसी तलब होती है कि सुबह उठते ही बिस्तर पर बेड-टी चाहिए। कुछ लोगों को खाने के तुरंत बाद चाय पसंद है और कुछ को ऑफिस से घर आते ही।
लेकिन भाई साहब मैं उन अभागों में से हूँ जो चाय के शौकीन नहीं। पर चाय का शौकीन न होना इतना आसान भी नहीं है। ये कोई हिन्दु धर्म जैसा थोड़े ही है कि मंदिर जाओ न जाओ रहोगे तो हिन्दू ही। ये तो जी आजकल की राजनीति के हिन्दुत्व जैसा है, या तो आप चाय के शौकीन और पक्षधर हैं या फिर चाय के दुश्मन। और ऐसे माहौल में चाय से दुश्मनी लेना कोई छोटी मोटी बात नहीं।
जब तक मैं स्कूल में था तो न कोई उम्मीद करता था कि मैं चाय पीऊँ और न ही कोई पूछता ही था। लेकिन जब कॉलेज पहुंचा तो देखा कि दोस्तों के साथ वक़्त बिताने के लिए चाय पीना बड़ा ज़रूरी है। हम सब दोस्त हॉल 3 की कैंटीन में चाय और समोसे के लिए अक्सर जाया करते। जब दोस्त चाय पीते तो मैं समोसे खा लेता और अक्सर बिना चाय पीए ही लौट आता। हम अक्सर सुबह सुबह एम टी जाते चाय पीने एक लंबे नाइट आउट के बाद। लेकिन मैं वहाँ भी एम टी के पकौड़े और जलेबी दही के लालच में ही जाता था। चाय तो तभी पी पाता था जब बहुत ठंड होती थी। जब कॉलेज से घर जाता छुट्टियों में तो मम्मी पूछती की चाय पीनी शुरू की या नहीं और हर बार ये सुन कर खुश हो जातीं की उनका लाल अब भी चाय की लत से दूर है।
कॉलेज के बाद जब सेल्स की नौकरी लगी तो लाइफ इतनी आसान नहीं रह गयी। मुझे एरिया सेल्स मैनेजर के रूप में काफी बड़ा एरिया मिला जिसमें पंजाब भी शामिल था। पंजाब के लोग खाने पीने के शौकीन हैं इसमें बताने जैसी कोई बात नहीं है। खाने का तो मैं भी शौकीन था ही। सो मैंने सोचा कि खूब जमेगी पंजाब में अपनी। हर दुकान पर जाते ही दुकान वाला चाय के लिए पूछता और मैं मुस्करा कर मना कर देता कि मैं चाय नहीं पीता। कुछ तो इस बात से दुखी हो जाते लेकिन कुछ और बदले में लस्सी या छाछ या लेमन सोडा ऑफर कर देते। एक महीने के बाद मेरे एक सेल्स ऑफिसर ने कहा, "बॉस, मार्केट में लोग आपसे कुछ खुश नहीं हैं और ये अफवाह उड़ रही है कि नए मैनेजर कुछ ज़्यादा ही अक्खड़ और नखरे वाले हैं।" मैं चकरा गया। जब मैंने इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि लोग कहते हैं कि ये मैनेजर तो हमारे यहाँ कि चाय तक नहीं पीता। मेरी उस दिन समझ में आया कि चाय कितनी ज़रूरी है इंसानी रिश्तों के लिए। चाहे आप इसे सेल्स का प्रैशर कहें या मेरी इंसानियत, मैंने चाय के ऑफर पर हाँ कहना शुरू कर दिया।
फिर क्या था। मैं एक दिन में करीब दस से पंद्रह दुकानों में जाता था और हर दुकानदार मुझे चाय पीने को कहता। मैं हाँ कह देता और शाम तक दस पंद्रह कप चाय पीकर मेरी हालत खस्ता हो जाती। लेकिन इन चाय के प्यालों ने मुझे पंजाब के उन दूकानदारों से ऐसी दोस्ती करवा दी कि फिर चाय सिर्फ चाय न रह गयी। कभी कोई गोल्डेन टैम्पल के पास वाले कुल्चे खिलाता तो कोई जलंधर की हवेली की पूरी सब्ज़ी और कोई पठानकोट के दाल के पकोड़े। मैं भी चाय के साथ मिलने वाली ऐसी ललचाने वाली चीजों के चक्कर में चाय पीता चला गया और जैसे तैसे अपने सेल्स के तीन चार साल पंजाब के चाय को झेलते बिता दी। और फिर मुझे जोश चढ़ा पढ़ाई करने का और मैं नौकरी छोड़ कर दिल्ली के राजेंद्र नगर में आ गया।
यहाँ आई ए एस की तैयारी करने वालों में चाय कि तलब मुझे पंजाब के दूकानदारों से भी ज़्यादा दिखी। मेरे जो भी दोस्त बने वो अनिल की चाय की दुकान पर ही बने और हर शाम को वहाँ ऐसी ऐसी गंभीर चर्चा होती कि लगता देश अब सुधरा कि तब सुधरा। मुझे यहाँ भी चाय से ज़्यादा अनिल की दुकान पर मिलने वाली वो ब्रैड कि रस्क ज़्यादा पसंद आती। रस्क को गरम चाय में डुबोकर नर्म मीठी रस्क खाने में बड़ा मज़ा आता। और ऐसे ही चाय का दौर चलता रहा। और अब जबकि मैं सरकारी नौकरी में अपने पैर जमा रहा हूँ तो चाय से पीछा छुड़ाना मुश्किल हो गया है। इतने सालों तक चाय पीने के बावजूद मैं अब तक चाय का अमली नहीं हुआ हूँ और ये मेरे चाय के शौकीन दोस्तों को अभी भी चकित कर देता है।
सरकार में रहकर आपको ऐसा लगेगा कि ये देश अब भी वैसे चल रहा है जैसे अंग्रेज़ इसे चलाते थे। ब्यूरोक्रेसी और आर्मी दो ऐसी संस्थाएं हैं जो आज भी लगभग वैसी ही हैं जैसा अंग्रेजों ने जाते जाते इन्हे छोड़ा था। और आइस वाली व्हिस्की के अलावा एक चीज़ जो अंग्रेजों ने इन दो संस्थाओं में अपनी छाप कि तरह छोड़ी है तो वो है चाय। सरकार में चाय सिर्फ एक पेय नहीं है। ये एक सरकारी बाबू कि दिनचर्या का एक अभिन्न अंग है।
सुबह जब काफी देर से ऑफिस की शुरुआत होती है तो एक ही घंटे में चाय के ब्रेक का वक़्त हो जाता है। यहाँ भी कर्मचारी की चाय और अफसर की चाय में फर्क होता है। ऑफिस का चपरासी एक शीशे के गिलास में चाय पीता है लेकिन जब साहब की चाय लेकर आता है तो चाय का कप एक छोटी सी प्लेट में रखा होता है। और चाय के साथ कम से कम दो तीन तरह के बिसकुट ज़रूर होते हैं। सो मुझे इन्हीं बिस्किट्स का इंतज़ार रहता है। पर उससे भी शानदार चाय होती है शाम की चाय और वो भी तब जब कोई बहुत ही सीनियर अफसर या मंत्री आपको शाम की चाय पर बुलाये।
क्योंकि हम अभी ट्रेनिंग पर हैं तो हमें रोज़ ही किसी न किसी बड़े अफसर या मंत्री से मिलने जाना होता है कर्ट्सी विसिट के नाम पर। और जब ऐसी जगहों पर चाय मिलती है तो उसे सिर्फ 'टी' नहीं कहते, उसे कहते हैं 'हाई-टी'। अब उसे 'हाई' क्यूँ कहते हैं ये तो मैं नहीं जानता लेकिन ये ज़रूर समझ गया हूँ कि हाई टी में चाय सिर्फ एक साइड एक्टर बनकर रह जाती है। चाय के साथ कम से तीन चार तरह के पकोड़े, समोसे, ढोकला, चिप्स, पेस्ट्री, मिठाई, और न जाने क्या क्या ऑफर किया जाता है। और इसलिए हाई टी मेरी फेवेरेट चाय बन गयी है। आज कल जब भी ऐसी किसी उच्च स्तरीय बैठक में हमें बुलाया जाता है तो मैं यही देख कर अपने मेजबान की सीनियरीटी का अंदाज़ा लगाता हूँ कि आखिर हाई टी कितनी हाई थी। एक मंत्री जी के यहाँ चाय के साथ इतने पकवान थे कि मैं चाय तक पहुँच ही नहीं पाया और मेरे मन में उनके प्रति काफी सम्मान उमड़ पड़ा। एक सीनियर अफसर ने चाय के साथ सिर्फ बिसकुट दी वो भी केवल नमकीन वाली तो मैं समझ गया कि ये या तो बेहद ईमानदार हैं या बेहद कंजूस। जब एक हाई टी में पास्ता और छोटे छोटे पिज्जा भी दिखे तो मेरे मन से भूरि भूरि प्रशंसा निकली उन साहब के लिए।
हाल ही में ससुराल के एक रिश्तेदार ने चाय पर सपत्नी बुलाया और मैं स-ससुराल ही पहुँच गया। ससुराल वाली चाय की अलग ही बात होती है। दामाद की इज्ज़त भी किसी सरकारी अफसर से कम नहीं होती। कभी कचौरी, कभी पोहे तो कभी टिक्की, चाय अकेले कभी नहीं आती। और जब चाय का न्योता ससुराल के किसी रिश्तेदार से आया हो तो पता होता है कि यहाँ न सिर्फ चाय के साथ दमदार नाश्ता मिलेगा बल्कि पैर छूते छूते दो तीन कडक नोट वाले लिफाफे भी आ जाएंगे जेब में। बाद में ये लिफ़ाफ पिज्जा खरीदने के काम आते हैं। इस बार वाले नाश्ते में भी जम कर टिक्की, पनीर पकोड़ा, ढोकला और चाट का लुत्फ लिया गया। आखिर पंजाबी ससुराल होने का असली फायदा तो खाने पीने वाला बिहारी पंडित ही उठा सकता है।
लेकिन आज तब हद हो गयी जब चाय की ब्रेक में सरकारी चाय के साथ न कोई समोसे मिले और न ही कोई बिस्कुट। पिछले कुछ दिनों से मिल रहे नयी तरह के कूकीस पर दिल आ गया था मेरा तो। लेकिन आज बस फक्त चाय!! आज मुझे चाय इतनी गरम लगी कि मुझे एहसास हुआ कि मौसम कितना गरम हो गया है। ऐसे मौसम में भी कोई चाय पी सकता है भला? एक बार फिर मेरा पलड़ा 'चाय के शौकीन' से 'चाय के दुश्मन' की तरफ बदल गया है। कल एक मंत्री जी के घर फिर से चाय का न्योता आया है। देखते हैं कल टी कितनी हाई होती है। तभी पता चलेगा कि मैं चाय का फिर से शौकीन बन पाता हूँ या नहीं।
जब तक मैं स्कूल में था तो न कोई उम्मीद करता था कि मैं चाय पीऊँ और न ही कोई पूछता ही था। लेकिन जब कॉलेज पहुंचा तो देखा कि दोस्तों के साथ वक़्त बिताने के लिए चाय पीना बड़ा ज़रूरी है। हम सब दोस्त हॉल 3 की कैंटीन में चाय और समोसे के लिए अक्सर जाया करते। जब दोस्त चाय पीते तो मैं समोसे खा लेता और अक्सर बिना चाय पीए ही लौट आता। हम अक्सर सुबह सुबह एम टी जाते चाय पीने एक लंबे नाइट आउट के बाद। लेकिन मैं वहाँ भी एम टी के पकौड़े और जलेबी दही के लालच में ही जाता था। चाय तो तभी पी पाता था जब बहुत ठंड होती थी। जब कॉलेज से घर जाता छुट्टियों में तो मम्मी पूछती की चाय पीनी शुरू की या नहीं और हर बार ये सुन कर खुश हो जातीं की उनका लाल अब भी चाय की लत से दूर है।
कॉलेज के बाद जब सेल्स की नौकरी लगी तो लाइफ इतनी आसान नहीं रह गयी। मुझे एरिया सेल्स मैनेजर के रूप में काफी बड़ा एरिया मिला जिसमें पंजाब भी शामिल था। पंजाब के लोग खाने पीने के शौकीन हैं इसमें बताने जैसी कोई बात नहीं है। खाने का तो मैं भी शौकीन था ही। सो मैंने सोचा कि खूब जमेगी पंजाब में अपनी। हर दुकान पर जाते ही दुकान वाला चाय के लिए पूछता और मैं मुस्करा कर मना कर देता कि मैं चाय नहीं पीता। कुछ तो इस बात से दुखी हो जाते लेकिन कुछ और बदले में लस्सी या छाछ या लेमन सोडा ऑफर कर देते। एक महीने के बाद मेरे एक सेल्स ऑफिसर ने कहा, "बॉस, मार्केट में लोग आपसे कुछ खुश नहीं हैं और ये अफवाह उड़ रही है कि नए मैनेजर कुछ ज़्यादा ही अक्खड़ और नखरे वाले हैं।" मैं चकरा गया। जब मैंने इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि लोग कहते हैं कि ये मैनेजर तो हमारे यहाँ कि चाय तक नहीं पीता। मेरी उस दिन समझ में आया कि चाय कितनी ज़रूरी है इंसानी रिश्तों के लिए। चाहे आप इसे सेल्स का प्रैशर कहें या मेरी इंसानियत, मैंने चाय के ऑफर पर हाँ कहना शुरू कर दिया।
फिर क्या था। मैं एक दिन में करीब दस से पंद्रह दुकानों में जाता था और हर दुकानदार मुझे चाय पीने को कहता। मैं हाँ कह देता और शाम तक दस पंद्रह कप चाय पीकर मेरी हालत खस्ता हो जाती। लेकिन इन चाय के प्यालों ने मुझे पंजाब के उन दूकानदारों से ऐसी दोस्ती करवा दी कि फिर चाय सिर्फ चाय न रह गयी। कभी कोई गोल्डेन टैम्पल के पास वाले कुल्चे खिलाता तो कोई जलंधर की हवेली की पूरी सब्ज़ी और कोई पठानकोट के दाल के पकोड़े। मैं भी चाय के साथ मिलने वाली ऐसी ललचाने वाली चीजों के चक्कर में चाय पीता चला गया और जैसे तैसे अपने सेल्स के तीन चार साल पंजाब के चाय को झेलते बिता दी। और फिर मुझे जोश चढ़ा पढ़ाई करने का और मैं नौकरी छोड़ कर दिल्ली के राजेंद्र नगर में आ गया।
यहाँ आई ए एस की तैयारी करने वालों में चाय कि तलब मुझे पंजाब के दूकानदारों से भी ज़्यादा दिखी। मेरे जो भी दोस्त बने वो अनिल की चाय की दुकान पर ही बने और हर शाम को वहाँ ऐसी ऐसी गंभीर चर्चा होती कि लगता देश अब सुधरा कि तब सुधरा। मुझे यहाँ भी चाय से ज़्यादा अनिल की दुकान पर मिलने वाली वो ब्रैड कि रस्क ज़्यादा पसंद आती। रस्क को गरम चाय में डुबोकर नर्म मीठी रस्क खाने में बड़ा मज़ा आता। और ऐसे ही चाय का दौर चलता रहा। और अब जबकि मैं सरकारी नौकरी में अपने पैर जमा रहा हूँ तो चाय से पीछा छुड़ाना मुश्किल हो गया है। इतने सालों तक चाय पीने के बावजूद मैं अब तक चाय का अमली नहीं हुआ हूँ और ये मेरे चाय के शौकीन दोस्तों को अभी भी चकित कर देता है।
सरकार में रहकर आपको ऐसा लगेगा कि ये देश अब भी वैसे चल रहा है जैसे अंग्रेज़ इसे चलाते थे। ब्यूरोक्रेसी और आर्मी दो ऐसी संस्थाएं हैं जो आज भी लगभग वैसी ही हैं जैसा अंग्रेजों ने जाते जाते इन्हे छोड़ा था। और आइस वाली व्हिस्की के अलावा एक चीज़ जो अंग्रेजों ने इन दो संस्थाओं में अपनी छाप कि तरह छोड़ी है तो वो है चाय। सरकार में चाय सिर्फ एक पेय नहीं है। ये एक सरकारी बाबू कि दिनचर्या का एक अभिन्न अंग है।
सुबह जब काफी देर से ऑफिस की शुरुआत होती है तो एक ही घंटे में चाय के ब्रेक का वक़्त हो जाता है। यहाँ भी कर्मचारी की चाय और अफसर की चाय में फर्क होता है। ऑफिस का चपरासी एक शीशे के गिलास में चाय पीता है लेकिन जब साहब की चाय लेकर आता है तो चाय का कप एक छोटी सी प्लेट में रखा होता है। और चाय के साथ कम से कम दो तीन तरह के बिसकुट ज़रूर होते हैं। सो मुझे इन्हीं बिस्किट्स का इंतज़ार रहता है। पर उससे भी शानदार चाय होती है शाम की चाय और वो भी तब जब कोई बहुत ही सीनियर अफसर या मंत्री आपको शाम की चाय पर बुलाये।
क्योंकि हम अभी ट्रेनिंग पर हैं तो हमें रोज़ ही किसी न किसी बड़े अफसर या मंत्री से मिलने जाना होता है कर्ट्सी विसिट के नाम पर। और जब ऐसी जगहों पर चाय मिलती है तो उसे सिर्फ 'टी' नहीं कहते, उसे कहते हैं 'हाई-टी'। अब उसे 'हाई' क्यूँ कहते हैं ये तो मैं नहीं जानता लेकिन ये ज़रूर समझ गया हूँ कि हाई टी में चाय सिर्फ एक साइड एक्टर बनकर रह जाती है। चाय के साथ कम से तीन चार तरह के पकोड़े, समोसे, ढोकला, चिप्स, पेस्ट्री, मिठाई, और न जाने क्या क्या ऑफर किया जाता है। और इसलिए हाई टी मेरी फेवेरेट चाय बन गयी है। आज कल जब भी ऐसी किसी उच्च स्तरीय बैठक में हमें बुलाया जाता है तो मैं यही देख कर अपने मेजबान की सीनियरीटी का अंदाज़ा लगाता हूँ कि आखिर हाई टी कितनी हाई थी। एक मंत्री जी के यहाँ चाय के साथ इतने पकवान थे कि मैं चाय तक पहुँच ही नहीं पाया और मेरे मन में उनके प्रति काफी सम्मान उमड़ पड़ा। एक सीनियर अफसर ने चाय के साथ सिर्फ बिसकुट दी वो भी केवल नमकीन वाली तो मैं समझ गया कि ये या तो बेहद ईमानदार हैं या बेहद कंजूस। जब एक हाई टी में पास्ता और छोटे छोटे पिज्जा भी दिखे तो मेरे मन से भूरि भूरि प्रशंसा निकली उन साहब के लिए।
हाल ही में ससुराल के एक रिश्तेदार ने चाय पर सपत्नी बुलाया और मैं स-ससुराल ही पहुँच गया। ससुराल वाली चाय की अलग ही बात होती है। दामाद की इज्ज़त भी किसी सरकारी अफसर से कम नहीं होती। कभी कचौरी, कभी पोहे तो कभी टिक्की, चाय अकेले कभी नहीं आती। और जब चाय का न्योता ससुराल के किसी रिश्तेदार से आया हो तो पता होता है कि यहाँ न सिर्फ चाय के साथ दमदार नाश्ता मिलेगा बल्कि पैर छूते छूते दो तीन कडक नोट वाले लिफाफे भी आ जाएंगे जेब में। बाद में ये लिफ़ाफ पिज्जा खरीदने के काम आते हैं। इस बार वाले नाश्ते में भी जम कर टिक्की, पनीर पकोड़ा, ढोकला और चाट का लुत्फ लिया गया। आखिर पंजाबी ससुराल होने का असली फायदा तो खाने पीने वाला बिहारी पंडित ही उठा सकता है।
लेकिन आज तब हद हो गयी जब चाय की ब्रेक में सरकारी चाय के साथ न कोई समोसे मिले और न ही कोई बिस्कुट। पिछले कुछ दिनों से मिल रहे नयी तरह के कूकीस पर दिल आ गया था मेरा तो। लेकिन आज बस फक्त चाय!! आज मुझे चाय इतनी गरम लगी कि मुझे एहसास हुआ कि मौसम कितना गरम हो गया है। ऐसे मौसम में भी कोई चाय पी सकता है भला? एक बार फिर मेरा पलड़ा 'चाय के शौकीन' से 'चाय के दुश्मन' की तरफ बदल गया है। कल एक मंत्री जी के घर फिर से चाय का न्योता आया है। देखते हैं कल टी कितनी हाई होती है। तभी पता चलेगा कि मैं चाय का फिर से शौकीन बन पाता हूँ या नहीं।