हर दफ्तर में साहब को लगता है कि सब कुछ उनके हुक्म से चल रहा है और बाबू को लगता है कि सब उसकी कलम की महिमा है। लेकिन एक शख्स ऐसा है जिसके होने का सबब आज तक कोई नहीं समझ पाया। हर सरकारी ऑफिस में किसी साहब के चैंबर के बाहर कुर्सी या स्टूल पर या किसी साहब के पीछे फ़ाइल उठाए आपको सफ़ेद या ख़ाकी वर्दी पहने यह शख्स नज़र आ जाएगा जिसे चपरासी या peon कहते हैं।
ये समझना असाना नहीं है की चपरासी जी करते क्या हैं। ये अँग्रेजी सरकार के भारतीय ज़मीन पर किए जाने वाले अनेक अचंभित कर देने वाले आविष्कारों में से एक है। 'साहब' तो अंग्रेज़ खुद थे, सो उन्होने दो नई जातियों के आविष्कार किए। एक तो 'बाबू' जिसकी जितनी बातें की जाएँ कम हैं, और दूसरा 'चपरासी'। चपरासी का कोई work plan नहीं होता, उसके कोई targets भी नहीं होते। लेकिन फिर भी चपरासी सरकारी तंत्र का एक अभिन्न अंग है।
अक्सर साहब के चैंबर के बाहर बैठा चपरासी सबसे उच्च कोटि का चपरासी होता है। एक तो उसके पास बैठने को अपनी कुर्सी होती है और इस मामले में वो साहब और बाबू के समतुल्य होता है। दूसरे ये कि साहब के चैंबर में प्रवेश का एकाधिकार सिर्फ उसके पास होता है। वो चाहे तो आपको एक मिनट में साहब से मिलवा दे या फिर वो अपनी पे उतार आए तो किसी मायावी मीटिंग में साहब को इतना busy बता दे की आप कभी साहब से मिल ही न पाएँ। ऐसे चपरासियों के नाम नहीं होते। पहले गोरे साहब इन्हें "कोई है?" के नाम से बुलाते थे और अब भूरे साहब अपनी table पर लगी घंटी बजा कर बुलाते हैं। घंटी बजाने वाले साहब को अक्सर ये नहीं पता होता की घंटी सुनने वाला चपरासी कहाँ से अचानक प्रकट हो जाता है। और साहब के आदेश के पालन के बाद फिर से अंतर्ध्यान हो जाता है। परंतु उच्च कोटि का चपरासी होना किसी चपरासी के लिए केवल गर्व का नहीं बल्कि चिंता की भी विषय होता है। जीतने बड़े साहब का चपरासी उतना ही ज़्यादा काम।
जो छोटे साहब लोगों के चपरासी होते हैं, उनमें भी एक अलग attitude होता है जो न सिर्फ आने वाली आम जनता पर दिखता है बल्कि साहब को भी उस attitude का शिकार होना पड़ता है। कई बार घंटी बजाने के बाद भी जब चपरासी नहीं आता तो साहब को मजबूरी में आकर खुद ही पानी लेकर पीना पड़ता है और इससे ज़्यादा अपमानजनक बात किसी भी सरकारी साहब के लिए कुछ और नहीं हो सकती की उन्हें पानी भी खुद ही लेकर पीना पड़ता है।
चपरासियों की भी कई श्रेणियाँ होती हैं। कुछ जो दफ्तर के बड़े साहब के साथ लगे होते हैं उनके कपड़े बर्फ की तरह उजले और कंधे पर किसी सौन्दर्य प्रतियोगिता की विजेता की तरह के sash भी होता है, और कभी कभी एक ऊंची पगड़ी भी। लेकिन जो मध्यम दर्जे के साहब का चपरासी होता है, वो साल में केवल एक बार अपनी वर्दी धुलवाता है, और जिस चपरासी की duty किसी बाबू के साथ होती है, वो अपने को सदैव छुट्टी पर ही मानता है और वर्दी तभी पहनता है जब उसका mood होता है।
मुझ जैसे नौसिखिए जो अपनी पानी की बोतल खुद लेकर आते हैं और जो चाय भी नहीं पीते, जो अपने चैंबर का दरवाजा खुद खोल्न और बंद करना जानते हैं और जिन्हें फ़ाइल उठाने में भी कोई तकलीफ नहीं होती, उन्हें चपरासी बड़ी हिकारत और नफरत भरी निगाहों से देखते हैं। उनमें ऐसी कानाफूसी होती रहती है कि ये भी भला कोई साहब हैं जो खुद स्कूल के बच्चे की तरह पानी की बोतल लेकर दफ्तर आते हैं। साहब तो एओ फलां-फलां साहब थे जिनके आने से पहले चपरासी दरवाजा खोले, कमरे की बत्ती और पंखा चलाये कुर्सी खींचने के लिए तैनात रहते थे। उन साहब के पीने का पानी चपरासी गिलास में डालकर उसपर ढक्कन भी रख दिया करते और पानी पीते ही तुरंत refill करने के लिए दौड़ पड़ते। एक और चपरासी तो उनके साथ गाड़ी में सिर्फ दरवाजा खोलने और पानी पिलाने के लिए ही बैठता था। वो ठाठ भी क्या ठाठ थे। ये तो गरीब साहब हैं। खुद ही अपना बैग उठाते हैं और खुद ही अपनी फ़ाइल एक कमरे से दूसरे में लेकर चले जाते हैं।
ऐसे नौसिखिये साहब लोगों की वजह से चपरासियों की कीमत कम हो जाती है। क्योंकि अगर हर साहब अपनी गाड़ी का दरवाजा भी खोलने लगें और अपने चैंबर का दरवाजा भी; अगर वो खुद ही बत्ती जला भी लें और बुझा भी लें और पानी भी खुद ही लेकर पी लें तो कैसे चलेगा भला? और तो और अगर साहब लोग बिना चपरासी के पर्ची लाये सबसे मिलने लगे तो चपरासी की power ही क्या रह जाएगी। ऐसे साहब खतरा हैं चपरासी समाज के लिए और इनका विरोध करना चाहिए।