Wednesday, March 26, 2014

आहना का प्यार

मैं आॅफिस से थका हुआ घर लौटा। अपनी साईकिल नीचे खड़ी कर पहली मंज़िल पर अपने किराए के फ़्लैट की घंटी बजाई तो अन्दर से आवाज़ आई, "चाचा आ गए, चाचा आ गए"। भाभी ने दरवाज़ा खोला तो दो बरस की आहना मुझे देख कर उछलने लगी। मैं काफ़ी थका हुआ था और आहना के साथ खेलने की ताक़त नहीं थी मेरे अन्दर। मैंने आहना के उत्साह का कोई जवाब नहीं दिया तो भाभी समझ गईं कि मैं थका हुआ हूँ। उन्होंने आहना को प्यार से समझाया, "चाचा अभी थके हुए हैं न बिट्टु, अभी तंग मत करो उनको।" भैया भाभी आहना को प्यार से बिट्टु बुलाते हैं मगर मैं ज़्यादातर आहना ही बुलाता हूँ। ये नाम मैंने ही रखा था उसका और इसलिए पसन्द है मुझे उसे आहना पुकारना। भाभी के समझाते ही आहना का मुँह लटक गया। पहले उसने ग़ुस्से से अपनी माँ को घूरा और फिर बड़ी भोली सी सूरत बना कर मुझे निहारा। मेरे पास आकर मेरी पैंट अपनी मुट्ठी में पकड़ कर कहा, "चाचा, आप सच में थक गए हैं या मम्मी झूठ बोल रही है?" मैंने उससे पीछा छुड़ाने के लिए कड़ी आवाज़ में कहा, "हाँ, बहुत थक गए हैं, तंग मत करना हमको।"

आहना मुँह लटका कर अपने कमरे में चली गई और मैं नहाने चला गया। नहा धोकर मैं अपनी किताब लेकर पढ़ने बैठ गया। थोड़ी देर बाद देखा कि आहना अपने खिलौने हाथ में लिए मेरे कमरे के दरवाज़े पर खड़ी है। मैं उसे देखते ही झल्ला उठा और चिल्लाया, "भाभी, इसको ले जाइए यहाँ से। ये पढ़ने नहीं देगी मुझे।" आॅफिस की थकान के बाद सिविल सेवा की तैयारी का तनाव मुझ पर हावी था। आहना मेरा चिल्लाना सुनकर डर गई और ख़ुद ही अपने खिलौने लेकर सिसकती हुई अपने कमरे में चली गई। मैं थोड़ी देर पढ़ता रहा और शायद आहना दूसरे कमरे में खेलती रही या रोती रही, मैं नहीं जान पाया। 

क़रीब एक घण्टे बाद आहना फिर मेरे कमरे के दरवाज़े पर खड़ी थी। उसकी आँखें थोड़ी गीली थीं और उसके हाथ में एक लाल क़लम थी, शायद भैया की होगी। मैंने उसे हल्के ग़ुस्से से देखा तो वो बोल पड़ी, "चाचा, प्लीज़ चिल्लाइएगा नहीं। हम बस आपसे एक ज़रूरी बात बोलने आए हैं।" दो साल की बच्ची के मुँह से इतनी साफ़ भाषा सुनकर मैं दंग रह गया। मेरा ग़ुस्सा काफ़ूर होकर आश्चर्य में बदल गया। मैंने कहा, "बोलो"। उसने अपने हाथ में ली हुई लाल क़लम से अपने माथे पर एक लकीर खींची। मैंने पूछा, "ये क्या कर रही हो?" वो अपनी मासूम आवाज़ में थोड़े ग़ुस्से और काफ़ी अधिकार से बोली, "समझ नहीं आ रहा क्या? सिन्दूर लगा रहे हैं।" मैं चौंक गया। उसकी ये बात सुनकर भाभी किचन से भागती हुई आई और उसके हाथ से क़लम छीनते हुए कहा, "पागल हो क्या? छोटे बच्चे सिन्दूर नहीं लगाते। सिन्दूर शादी के बाद लगाते हैं।" भाभी ने शायद ये बताना ज़रूरी नहीं समझा कि आहना के हाथ में क़लम है न कि सिन्दूर। मैं अब भी इसी आश्चर्य में था कि आहना ने ऐसी बात सीखी कहाँ से। मैं मन ही मन भाभी को दोष देने लगा कि वो क्यों बच्ची के सामने ऐसे टीवी सीरियल्स देखती हैं जिससे बच्चे ये सब उलटी-सीधी बातें सीखते हैं।

मेरे विचारों के क्रम को आहना की आवाज़ ने तोड़ा। वो भाभी से कह रही थी, "हम जानते हैं मम्मा कि सिन्दूर शादी के बाद लगाते हैं। मेरा शादी हो गया है।" ये सुनकर मेरी और भाभी दोनों की हँसी छूट पड़ी। मैंने हँसते हुए पूछा, "किससे हो गई तुम्हारी शादी आहना?" वो झट से बोली, "आपसे चाचा। क्योंकि हम आपसे बहुत प्यार करते हैं न। और आप भी तो हमसे बहुत प्यार करते हैं। करते हैं न चाचा?" वो अपनी गर्दन एक कर झुका कर बोली। मैं उसकी वो भोली शक्ल देख कर ख़ुशी से लबालब भर गया। आॅफिस की सारी थकान ग़ायब हो गई और पढ़ाई की भी टेंशन न रही। मैं अपनी कुर्सी से उठा और दौड़ कर आहना को अपनी गोद में उठा लिया। "चाचा तुमसे बहुत प्यार करते हैं आहना, और चाचा भी तुमसे शादी करेंगे।" मुझे अपनी कहीं ये बातें बिल्कुल अटपटी नहीं लग रही थीं। मैं उसे ये नहीं समझाना चाहता था कि वो जो कह रही है वो बेवक़ूफ़ी है और उसे अभी शादी का मतलब नहीं समझ आता। मैं उसे ये भी नहीं समझाना चाहता था कि मेरा और उसका रिश्ता बाप बेटी का है। मैं तो बस उससे इतना समझना चाहता था कि कैसे वो अपने ग़ुस्सा करने वाले चाचा से इतना प्यार कर सकती है, कैसे उसके प्यार में कोई स्वार्थ नहीं, कोई बनावट नहीं़, कोई छल नहीं। मेरे पास ईस वक़्त उसे समझाने के लिए, सिखाने के लिए कुछ नहीं था। मैं तो ख़ुद उससे सीखना चाहता था कि प्यार कैसे किया जाता है। मैंने उसका माथा चूमते हुए कहा, "आई लव यू आहना" और मेरी उस दो बरस की परी ने मेरे गाल पर पप्पी देकर कहा, "आई लव यू टू चाचा"।