Monday, January 26, 2009

सठिया गए हो बाबा ...

सुबह सुबह मैंने बुड्ढे से कहा - "साठ साल हो गए तुम्हें होश संभाले बाबा। वैसे जन्म के तो ६२ साल हो गए पर अकाल आए हुए अभी साठ ही हुए हैं। वैसे सही देखा जाए तो अभी तो उन्सठ साल ही हुए हैं। साठवां साल तो अभी बस चढा है। क्या तारिख थी उस रोज़? हाँ! 26 जनवरी 1950 ही थी न तारिख। जब वोह डेल्ही में कोई तीन चार सौ लोग बैठे थे बुद्धे से, ज़्यादातर वकील थे जिनमें। एक कोई बिहारी होते थे राजेंद्र नाम के और कोई भीम राव थे, मराठी थे शायद। इन लोगों ने दुनिया भर के संविधान पढ़ कर और सबसे जो जो अच्छा-अच्छा मिला, उसे समेट कर, तुम्हारा भी संविधान लिखा था। ऐसा तो नहीं है कि वो संविधान सिर्फ़ दूसरे कई संविधानों की प्रेरणा से लिखा गया था, लेकिन उसमें काफ़ी कुछ वैसा ही लिखा गया जैसा की अँगरेज़ करते आए थे। खैर, मैं उस किताब की बात नही कर रहा जिसमें तुम्हारा भविष्य लिखा गया था, मैं तो बस ये याद दिला रहा था तुम्हें कि बहुत समय हो गया उस किताब को लिखे हुए। क्या कहते हैं, हाँ, वो गणतंत्र हो गए थे तुम उस दिन। Republic बोलते हैं जिसे। मतलब कि अब तुम्हारे सर पर कोई रजा नही होगा न ही कोई वायसराय। तुम्हारा मालिक अब तुम्हारा मालिक न होकर जनता के द्वारा चुना गया एक प्रतिनिधि होगा। राष्ट्रपति बोला करेंगे उसे। रस्थ्रपति बनने के लिए बाकायदा चुनाव होंगे, और एक समझदार, पढ़ा-लिखा व्यक्ति ही ऐसे पद तक पहुँच पायेगा। उस समय के हिसाब से देखा जाए तो एकदम मस्त system था ये। किसी को ये नही लगा कि इससे बेहतर भी कुछ हो सकता है।"

"पर बाबा, साठ साल में, तुम्हें नही लगता कि वक्त बहुत बदल गया है। मानता हूँ कि समय पर बहुत सारे बदलाव होते रहे हैं उस मोटी सी किताब में और शायद सही भी हुए होंगे, फिर भी कहीं न कहीं कुछ है जो सड़ने लगा है। तुम्हें नहीं लगता ऐसा। " बाबा अब थोड़ा गरम हों लगे थे। बुढापे के बारे में सुनकार ज़्यादातर लोग भड़क जाते हैं सो लाज़मी था कि ये बुड्ढा भी भड़केगा ही। खांसते हुए बुड्ढे ने कहा - "देखो बटा, तुम जवान हो, तुम्हारे खून में गर्मी है, और सबसे बड़ी बात है कि तुम्हारी सोच आज़ाद है, तभी आज बैठे मुझे इतना सब सुना रहे हो। अगर तुम्हारे दादा परदादा लोगों ने वोह किताब न लिखी होती 60 साल पहले, तो न जाने आज तुम कितने आज़ाद होते। जिससे सदन कि गंध परेशां कर रही है तुम्हे, शायद वो इतनी भयानक होती कि तुम आज साँस न ले पाते।" मैंने उसकी बात बीच में ही काटते हुए मैंने कहा - " जो भी हो बाबा, बूढे तो हो ही गए हो तुम। जिस किताब में तुम्हें इतना घमंड है आज उस किताब कि कौन परवाह करता है। लोगों ने सोचा था कि दस साल के लिए कुछ लोगों को अनुसूचित जाति का दर्जा दे देंगे तो उन्हें समाज में बराबरी मिल जायेगी। पर आज साठ साल हो गए, बराबरी तो नहीं मिली पर जात- पात की पहचान ज़रूर बढ़ गई सबमें। हर फॉर्म में पूछते हो की बंद general है या SC/ST। किताब में लिखा था कि सबको आजादी मिलेगी, गरीबी मिटेगी, और न जाने क्या क्या। तुम्ही ख़ुद ही कह दो कि कितना कुछ सच हुआ है।"

बाबा चुप हो गए। सो हो चुके बालों को आईने में देख कर बोले, " सही कह रहे हो शायद, सठियाने लगा हूँ मैं अब। उमर हो चली है।"

1 comment:

Anonymous said...

Very well said......we require some major change in our constitution!!