Sunday, January 31, 2010

कोहरा जनवरी का

कितनी भारी सुबह है ये...

पीठ पर लादे हूँ इसे,
और आँखों से तौल रहा हूँ।
ओस की- सी फिसलन है इसमें,
लड़खड़ाते हैं पाँव जिन पर।

धुप छिप गयी है कान के पीछे कहीं,
और अलसाई कलाई इसकी खींचती है पीछे,
आसमान उबला हो यूँ कि
धुआं - धुआं सा है चारों तरफ।

क्या किसी ने रात को फटकारा था जोर से ?
क्यों ये सुबह इतनी रुआंसी है ?
सिर्फ 'कोहरा' है जनवरी का ये
या वज़न धरा है किसी ने सुबह में?

ये सुबह इतनी भारी क्यूँ है ?

Written on 20th January 2010 in Delhi

3 comments:

Sleepwalker said...

shandaar pradarshan. full marks for the poetry. bade dino ke baad. accha laga

Rajiv said...

Bakchod...Gulzaar in the making...Gud to see the poet in you is maturing...

pali tripathi said...

loved this one!