कितनी भारी सुबह है ये...
पीठ पर लादे हूँ इसे,
और आँखों से तौल रहा हूँ।
ओस की- सी फिसलन है इसमें,
लड़खड़ाते हैं पाँव जिन पर।
धुप छिप गयी है कान के पीछे कहीं,
और अलसाई कलाई इसकी खींचती है पीछे,
आसमान उबला हो यूँ कि
धुआं - धुआं सा है चारों तरफ।
क्या किसी ने रात को फटकारा था जोर से ?
क्यों ये सुबह इतनी रुआंसी है ?
सिर्फ 'कोहरा' है जनवरी का ये
या वज़न धरा है किसी ने सुबह में?
ये सुबह इतनी भारी क्यूँ है ?
Written on 20th January 2010 in Delhi
3 comments:
shandaar pradarshan. full marks for the poetry. bade dino ke baad. accha laga
Bakchod...Gulzaar in the making...Gud to see the poet in you is maturing...
loved this one!
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