Monday, June 20, 2016

रिमार्केबल ज़िद्द

पापा को बोलते हुए पिछले चार बरस से नहीं देखा। 2012 को हुए उस ब्रेन स्ट्रोक ने हमेशा के लिए बोलने की शक्ति खत्म कर दी। स्पीच थेरेपी साल भर के बाद बंद करा दी। हाँ दाहिने हाथ और पैर में काफी सुधार हुआ। पिछले साल जब लीलावती में डॉक्टर ने देखा तो Remarkable Recovery कहे बिना न रह सके। और इस रिमार्केबल रिकवरी के पीछे सिर्फ दवाओं और दुआओं का असर नहीं था; पापा की इच्छाशक्ति और ज़िद का भी बहुत बड़ा योगदान रहा।

स्ट्रोक के वक़्त पापा करीब 90 किलो के थे। इतने भारी मरीज़ को उठाना, बिठाना, चलाना, नहलाना सब मुश्किल होता था। 2 साल पुरानी बात है। छठ का त्यौहार था। पापा छड़ी की मदद से चलना सीख चुके थे। मम्मी पापा के साथ छठ में अर्घ्य देने पास के एक तालाब तक गई। पैदल लौटते वक्त पापा अचानक थक गए। उनके पैर ही न उठे। उन्होंने इशारों में कहा कि अब चला नहीं जाता, कोई गाडी लाओ। मम्मी ने वहीँ से गुज़र रहे किसी कार वाले से मदद मांगी और पापा को घर लाई। लेकिन इसने पापा के स्वाभिमान को ठेस पहुंचाई।

कुछ दिनों बाद सड़क पर चलते वक़्त पापा का एक पैर एक गढ्ढे में चला गया और माँ के देखते देखते पापा सड़क पर गिर गए। मम्मी 90 किलो के उस शरीर को उठाने में असमर्थ रही। पापा भी खुद के भारी शरीर को एक हाथ और एक पैर के सहारे न उठा सके। आस पास गुज़र रहे लोगों की मदद से पापा को खड़ा किया जा सका। लेकिन पापा इस घटना से और भी लज्जित हो गए। माँ ने फरमान जारी कर दिया कि "कोई ज़रुरत नहीं है अब कहीं वाक करने की। इतने भारी हैं कि हम संभाल नहीं सकते आपको। घर बैठे रहिए।"

पापा ने कुछ नहीं कहा। कह भी तो नहीं सकते थे। लेकिन उन्होंने दिन में सिर्फ एक बार भोजन करना शुरू कर दिया। मम्मी को लगा नाराज़ है या दुखी। लेकिन पापा ने ज़िद्द पकड़ ली कि एक बार से ज़्यादा खाना नहीं खाऊंगा। और अपनी पैदल चलने की प्रैक्टिस भी नहीं छोड़ी। लगभग एक साल बाद पापा का लगभग 25 किलो वज़न घट चुका था। पापा की जो तोंद मैंने बचपन से अब तक निरंतर देखी थी, वो गायब हो गयी।
पापा अब अपने हलके शरीर से कम्फ़र्टेबल हो गए। बगैर छड़ी के न सिर्फ चलने लगे बल्कि अब सीढियां चढ़ना उतरना भी आसान होने लगा। जिस ज़िद्द ने पापा को अस्पताल से ज़िंदा बाहर निकाला था उसी ज़िद्द ने पापा को अब इतना फिट कर दिया की ज़मीन पर पड़ा जूता वो खुद झुक कर उठा सकते हैं। उनका आत्मविश्वास और बढ़ गया।

कुछ दिनों पहले एक और घटना हुई। पापा के बोल न पाने की वजह से रोज़ कोई न कोई ड्रामा होता रहता है और अब हम सब को इस डम्ब शराड्स की आदत हो गयी है। हमने बड़ा चाहा कि पापा बाएँ हाथ से लिखकर अपनी बात कह सकें लेकिन 65 की उम्र में आधे दिमाग में एक क्लॉट के साथ ये पापा कर नहीं पाए। एक दिन एक बैंक से मालूम चला कि आपका खाता बंद हो गया है। पापा को बैंक ले जाया गया और खाता चालू हो गया। पापा ने जोश में आकर किसी का एक पेमेंट चेक से कर दिया। साइन की जगह अंगूठे का निशान लगा दिया। पर वो चेक एनकेश नहीं हुआ। बैंक ने कहा कि पापा खुद बैंक आएं, बैंक के किसी अन्य खातेदार को गरंटी के लिए लाएं। इस बीच बैंक के किसी कर्मचारी ने पापा मम्मी को काफी परेशान किया। एक चेक एनकेश होने में 2 घंटे लग गए। पैसे दे तो दिए गए लेकिन वो अंगूठा छाप जैसा ट्रीटमेंट पापा को खटक गया।

मैंने कहा कि बुरा मत मानिए, मैं उस बैंक से आपका खाता बंद करवा दूंगा। मम्मी ने फिर गुस्से से कहा कि "बैठे रहते हैं बाएं हाथ से साइन नहीं कर सकते क्या?" एक बार फिर पापा ने ज़िद्द पकड़ ली। एक पुराना कैंसल चेक मिला उन्हें जिसपर उनके साइन थे। एक नौसिखिये बच्चे की माफिक वे अपने ही साइन की नक़ल करना शुरू करने लगे। जिस बाएं हाथ से 65 बरस में कभी कलम नहीं पकड़ी, उसी बाएं हाथ से अपने ही साइन को सैकड़ों बार कागज़ पर लिखना शुरू कर दिया। समय लगा, लगभग 2 महीने की लगातार प्रैक्टिस के बाद उन्होंने अपने साइन को बाएं हाथ से करना शुरू कर दिया। पर उसके लिए उन्हें वो पुराना चेक और उस पर किया साइन देखना पड़ता।

आज मैं उन्हें लेकर बैंक गया ये सोचकर कि खाता बंद कर दिया जाए। अंगूठा छाप होने की वजह से न तो पापा चेक से काम कर पाते न ही बैंक अंगूठा छाप व्यक्ति को atm कार्ड देने के लिए तैयार था। लेकिन पापा ने कहा (इशारों में) कि चालीस साल से गए बैंक खाता है, इसे बंद नहीं करेंगे। उन्होंने ज़िद्द की कि मैं बैंक वालों को कन्विंस करूँ कि अब वो बाएं हाथ के हस्ताक्षर से खाता चलाएंगे। मैंने भी सोचा बात करने में क्या हर्ज़ है।

मैंने बैंक मेनेजर से पूरी कहानी बताई। उसने ये उपाय बताया कि आप अपने पिता के साथ जॉइंट खातेदार बन जाइए। और फिर आप खाता चलाइये। पापा की कोई ज़रूरत नहीं। पापा ने थोड़ी हिचकिचाहट से बात मान ली। उन्होंने शायद ये मान लिया की कमान बेटे के हाथ में ही दे दी जाए। शायद अब वो खुद सब कुछ करने लायक नहीं रहे। पता नहीं क्यों मुझे उनकी उस मौन स्वीकृति ने थोडा हिला दिया। मैंने बैंक मेनेजर से कहा एक बार आप पापा को बाएं हाथ से साइन करते देख लें। अगर आप कन्विंस न हों तो मैं जॉइंट खातेदार बन जाऊंगा। पापा के चेहरे पर आत्मविश्वास छलक आया। जेब से कलम निकाली, वो कैंसल चेक सामने रखा और अपने साइन की हूबहू नक़ल बाएँ हाथ से एक सादे कागज़ पर कर डाले। बैंक मेनेजर और उनका स्टाफ हतप्रभ पापा को कलम चलाते देखते रहे। बैंक मेनेजर कह पड़ा, Remarkable Improvement. एक बार फिर पापा ने अपनी ज़िद्द से ये रिमार्केबल वाला खिताब पाया।

मैंने एक आखिरी बार मेनेजर से कहा, "मैंने और मेरे परिवार ने बड़ी शिद्दत से इनके खोये आत्मसम्मान को वापस लाने का प्रयास किया है। अगर आज बागडोर बेटे के हाथ में आ गई तो पापा मन से रिटायर्ड महसूस करने लगेंगे। प्लीज आप पापा को ही इस खाते के सभी अधिकार दे दें।" मेनेजर मान गया। उसने एक आवेदन लिखवाया और कहा कि अब इनकी ये बाएं हाथ वाले साइन को ही ऑफिशल साइन मान लेंगे। कल से ये वापस इस खाते को वैसे ही चला पाएंगे जैसे स्ट्रोक के पहले चलाते थे। अब इन्हें एटीएम कार्ड भी जारी कर दिया जाएगा। अब बैंक के लिए ये अंगूठा छाप नहीं हैं।

पापा अपने लौटे स्वाभिमान से हर्षित हैं। लौटते वक्त वो एक मिठाई की दूकान में घुस गए। इशारे इशारे में ही 2-3 किलो मिठाई आर्डर कर डाली और जब उसने 2000 का बिल दिया तो बड़ी शान से बाईं जेब से चार 500 के कड़क नोट निकाले और दे डाले। वैसे ही जैसे हमेशा किया करते थे। मिठाई दूकान वाला भी ऐसे मुस्करा उठा जैसे मन ही मन रिमार्केबल बोल रहा हो।

10 comments:

Unknown said...

Remarkable blog...just loved it

Unknown said...

Beautiful and inspiring

Unknown said...

Remarkable blog...just loved it

The Pack said...

Truly remarkable. Hats off

Dheeraj said...

:)

Unknown said...

:) wow..strong willpower....gazab

Unknown said...

Very touching. Hoping to read more about his remarkable feats. Truly, a source of inspiration and persistence.

Nityanand Jha said...

Thank you for writing such a wonderful and inspirational blog.

Unknown said...

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Anonymous said...

Papa is always remarkable.My courage get courageous from my Papa. Love and respect you always Papa. Ur Munna.