Thursday, January 1, 2009

लो भाई ...एक और गया

देखते देखते एक और साल निपट गया। अभी तो ढंग से होश भी नही संभाला था कि ऐसे २६ नए साल निकल गए। २७ वाँ साल आ गया ज़िन्दगी का। गया साल जाते जाते मुह चिढा गया कि "बेटा ! अब तो बड़े हो जाओ। कब तक आलू पराठे और मोतीचूर के लड्डू में खुश होते रहोगे?" मेरी कुछ समझ में नही आया। कमबख्त जाते हुए साल को सारी परेशानी मेरे आलू पराठों और लड्डुओं से ही थी क्या? मेरी इतनी adventorous life में क्या कुछ और बात नज़र नही आती। खैर, जाने वाले कि बात का क्या बुरा मानना। बेचारा 2008 वैसे भी जाने के ग़म में थोड़ा परेशान होगा। जाते जाते मुझ पर अपनी नाराज़गी निकाल गया। मैं भला क्यूँ उसकी बात को तूल दूँ। मैंने भी नए साल का स्वागत धूम धाम से करने कि ठानी। धूम के लिए बहुत सारे गाने सुने। और धाम के लिए मोतीचूर के लड्डू खरीद लिए। अब नए साल पर पकवान तो अच्छे ही खाने चाहिए। सो मैंने आलू के पराठे बनवा लिए। अभी एक पराठा मुह में डाला ही था कि एक अनजानी सी आवाज़ ने कहा " बेटा! अब तो बड़े हो जाओ। कब तक आलू पराठे और मोतीचूर के लड्डू खाते रहोगे।" इस बार मेरा दिमाग ठनका। बात वही, आवाज़ नई। अब ये कौन है रंग में भंग डालने वाला। मैंने मन ही मन उस अनजानी आवाज़ कि माता और बहन के नाम कि गालियाँ दी और सर घुमा कर देखा तो ये भाई साब तो 2009 थे। शक्ल बिल्कुल 2008 से मिलती जुलती, सिर्फ़ आवाज़ में थोडी सी भर्राहट सी थी। जैसे किसी ने सिगरेट पीकर धुआं न छोड़ा हो और गले में ही चिमनी बन गई हो। मैंने झल्लाते हुए पूछा, " क्यों बे ! तुझे क्या परेशानी है मेरे पराठे और लड्डू से? तेरे बाप का खाता हूँ क्या? बड़ा आया मुझे समझाने वाला। " इस बात का कोई ख़ास असर नही हुआ उस पर। वो मुझे देख कर ऐसे मुस्करा रहा था जैसे मैं कोई गधा हूँ जो गणित कि बातें करता हो। मेरा पारा और चढ़ गया। मैंने कहा, "अबे ओय ! अभी मूड मत ख़राब कर। न्यू इयर की खुशी में क्यूँ disturb करता है?" भर्राती हुई आवाज़ में उसने बोला, " साले मोटे! जब से तू पैदा हुआ है और तेरे मुह में दांत और पेट में आंत है, तब से तुझे बस पराठे और लड्डू खाते ही देख रहा हूँ। इतना कुछ बदल गया इन सालों में लेकिन तेरी ये छिछोरी हरकत नही बदली।"

"क्यूँ बदलूँ कुछ? बुरा क्या है ऐसे जीने में? अपनी मर्ज़ी से जीता हूँ, खुश हूँ। तेरे पिछवाडे में किस बात की खुजली हो रही है।" मैं पूरी कोशिश कर रहा था की मेरी भाषा उसकी भाषा से ज्यादा गन्दी हो। मर्दों की लडाई में इसी से पॉवर का पता चलता है। नया साल थोडी देर चुप रहा। फ़िर बिस्तर के पास पड़ी कुर्सी खींच कर बैठ गया। मैंने सोचा की ये तो मेरी privacy की वाट लगा रहा है। मैंने उससे जाने को कहा तो हँसते हुए कहता है, " साले! मैं अब पूरे 365 दिन बाद ही जाऊँगा। " मुझे अपनी बेवकूफी पर थोडी शर्म आई और मैं अपना सा मुह ले कर चुप हो गया। अब जो वो बैठ ही गया था तो मैंने एक प्लेट में दो पराठे निकाल कर उसके सामने रखे। उसने पराठे से ज्यादा, भाव खाने में अपनी शान समझी। मैंने भी ज़्यादा push नही किया। उसने एक चाय की फरमाइश की, सो उसे पिला दी गई। अब वो दिल्ली की ठण्ड की बातें करने लगा। और ये की कैसे धुंध की वजह से उसकी flight लेट हो गई थी। फ़िर भी कैसे उसने ठीक बारह बजे एंट्री मार ही ली। "ये तो साला फालतू बकवास कर रहा है ", मैंने सोचा, "इसने अभी तक लड्डू और पराठे वाली बात का खुलासा नही किया।" चूँकि उसको आए थोड़ा वक्त बीत चुका था और थोडी धुप भी निकल आई थी, सो हमारी बातचीत में भी थोडी गर्माहट आ गई। मैंने उससे बड़ी विनम्रता से पूछा, "भाई, अब तो बता दे की तुझे मेरे पराठे खाने से क्या परेशानी है?" इस बार वो मुस्कराया नही। उसका चेहरा गंभीर हो गया। थोडी देर की चुप्पी के बाद उसने मुझसे पानी माँगा।

पानी पीने के बाद जो उसने कहा, वो मेरी कल्पना से परे था। अपनी भर्राती हुई आवाज़ में उसने मुझसे कहा, " यार मेरी शक्ल से तुम्हे अंदाजा तो हो ही गया होगा की मैं 2008 जैसा दीखता हूँ। दरअसल मैं 2008 ही हूँ। और उसके पहले वाले साल भी मैं ही था। तुम लोग तो हर 31 दिसम्बर को नाच गाने के साथ पुराने साल को भुला देते हो और नए को गले लगा लेते हो लेकिन कोई ये नही समझता की कैलेंडर बदल जाने से मेरे हालात थोड़े ही न बदल जाते हैं। अभी महीना भर भी नही हुआ जब मैंने अब तक का सबसे डरावना मंज़र देखा मुंबई के उन बड़े होटलों में। आग ठंडी भी नही हुई थी उन दिनों की, और लोग फ़िर से नए साल का जश्न मानाने में मशगूल हो गए। ये ख्याल नही आया की खतरा टला नही है ? की जो हुआ वो इस साल भी हो सकता है? और इस साल भी होगा। बस, आदत सी बना ली है कि कुछ दिन अफ़सोस करो और फ़िर लग जाओ अपनी रोज़ी रोटी की जुगाड़ में। दो गालियाँ पड़ोसी देश को दे दो। एक दो बार भगवान् को कोस लो। और तब भी जी न भरे तो कह देना कि ये वक्त ही ख़राब है। आख़िर वक्त कि क्या गलती है? क्या वक्त अपने हाथों से बम बनाते हैं, या ख़ुद आसमान से गोलियों कि बारिश करते हैं? ये तो तुम इंसान हो जिनसे अब वक्त को भी डर लगता है। डर के मारे मेरी आवाज़ भर्रा गई है। खुशी का माहौल हो तब भी मुस्कराने में डर लगता है कि कहीं फ़िर से तुम सालों आपस में लड़ न मरो। और कुछ तुम्हारे जैसे नामाकूल भी हैं। जो जन्म से ही अंधे बहरे हैं। दुनिया जलती है तो जले। इन साहब को तो बस अपना पराठा और लड्डू मिल जाए। ये उसी में खुश हैं। साले! तू भी तो हो सकता था वहां जहाँ गोलियां चली थी। तेरे खोपड़े को भी कोई बम उड़ा सकता है कभी। पर तुझे क्या? तू भी शिकार हो जाना किसी दिन ऐसी ही किसी गोली का। और बाकी सब बैठ के पराठे खाते रहेंगे। फ़िर पूछूंगा कि तुझे क्या दिक्कत है पराठे खाने वालों से।"

मेरे रोंगटे खड़े हो गए। टीवी पर देखा तो मैंने भी था ये सब कुछ और अफ़सोस भी जताया था, लेकिन कहीं न कहीं इस बात का सुकून था कि अपना कोई नही था उस घटना में। ये बात तो सही है कि हम भी तो हो सकते थे वहां। ये हमला करने वाले यहाँ भी तो आ सकते थे। शायद हम सोचना ही नही चाहते कि हमारे साथ भी कुछ ऐसा हो सकता है। हम बस भगवान् से मनाते हैं कि कोई न कोई इस बात का ख्याल रखे कि सब ठीक हो। लेकिन वो 'कोई' हम नही बनाना चाहते।

साल के पहले दिन ही बहुत सवाल खड़े कर दिए इस नए साल ने। मैंने अपना हाथ लड्डू कि तरफ़ बढाया, और फिर न जाने क्यूँ वापस खींच लिया। साला मूड ख़राब हो गया सुबह सुबह।

4 comments:

मोहन वशिष्‍ठ said...

नया साल 2009 आप सभी के लिए
सुखदायक
धनवर्धक
स्‍वास्‍थ्‍वर्धक
मंगलमय
और प्रगतिशील हो

यही हमारी भगवान से प्रार्थना है

Regard

Unknown said...
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Sparkle said...
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Anonymous said...

lekin wo koi ham nahi... '' banna ''chahte .