आज नींद ही नहीं इन आँखों में
आज नींद ही नहीं इन आँखों में
एक चाँद की तमन्ना की थी इन आँखों ने
एक बीज बोया था इन आँखों ने
मन की कोमल मिटटी पर एक फूल उगाने का
एक सपना देखा था इन आखों ने
उस सपने को अक्सर पूरा होने से पहले
बिखर कर खोते देखा है इन आँखों ने
पर समेट कर बिखरे तुकडे
फिर से संजोया है वही सपना इन आँखों ने
इक बार हाथ में आई तो थी सफलता
पर अधूरा सपना कह कर नकार दिया इन आँखों ने
चढ़ा कर नयी आंच पर पुरानी हांडी
फिर से वही सपना पकाया इन आँखों ने
आज जब पका सपना सामने परोसा है
तो क्यों न जश्न मनाया इन आखों ने?
मूँद कर नरमी से बोझिल हो कर
क्यों न आराम पाया इन आँखों ने?
क्यों नींद ही नहीं इन आँखों में?
3 comments:
Kal hume bhi sone nahi diya in aankhoan ne
awesome poem sir..im a 2009 passout frm iitd..also preparing for civils..
आज जब पका सपना सामने परोसा है
तो क्यों न जश्न मनाया इन आखों ने?
मूँद कर नरमी से बोझिल हो कर
क्यों न आराम पाया इन आँखों ने?
loved these lines...
looks like a new race will start now.. or may be a new dream again to chase... :)
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