Saturday, May 5, 2012

Aaj neend hi nahin in aankhon mein

आज नींद ही नहीं इन आँखों में 

आज नींद ही नहीं इन आँखों में

एक चाँद की तमन्ना की थी इन आँखों ने
एक बीज बोया था इन आँखों ने
मन की कोमल मिटटी पर एक फूल उगाने का
एक सपना देखा था इन आखों ने 

उस सपने को अक्सर  पूरा होने से पहले
बिखर कर खोते देखा है इन आँखों ने
पर समेट कर बिखरे तुकडे 
फिर से संजोया है वही सपना इन आँखों ने

इक बार हाथ में आई तो थी सफलता 
पर अधूरा सपना कह कर नकार दिया इन आँखों ने
चढ़ा कर नयी आंच पर पुरानी हांडी 
फिर से वही सपना पकाया इन आँखों ने

आज जब पका सपना सामने परोसा है
तो क्यों न जश्न मनाया इन आखों ने?
मूँद कर नरमी से बोझिल हो कर
क्यों न आराम पाया इन आँखों ने?

क्यों नींद ही नहीं इन आँखों में?

3 comments:

trevis said...

Kal hume bhi sone nahi diya in aankhoan ne

Himanshu said...

awesome poem sir..im a 2009 passout frm iitd..also preparing for civils..

Priyanka Vaishnav said...

आज जब पका सपना सामने परोसा है
तो क्यों न जश्न मनाया इन आखों ने?
मूँद कर नरमी से बोझिल हो कर
क्यों न आराम पाया इन आँखों ने?

loved these lines...
looks like a new race will start now.. or may be a new dream again to chase... :)