चंदू, यानी कि मैं जब छोटा था तो अपने घर के सामने बने उन बडे बडे मकानों को देखकर यही सोचा करता था कि कब हम भी इस छोटे से घर से निकल कर उस बडे से घर में जायेंगे। बडे घर में तो नहीं जा सका पर बडे शहर में ज़रूर ला पटका जिन्दगी ने।
बिहार के एक छोटे से शहर में जब मैंने अपने बचपन कि शुरुवात की तो ये देख कर अक्सर दंग रह जाता कि कैसे लोग इतनी बड़ी जगह में खोते नहीं। कैसे लोग मकानों के बीच से रास्ते ढूँढ लेते हैं यारों से मिलने के लिए। पर मुझे नहीं मालूम था कि जो शहर मुझे बचपन में इतना विशाल लगता था वोह दरअसल बहुत छोटा था। १८ साल की उम्र में मैंने वो शहर छोड़ दिया, आगे पढ़ाई करने के लिए। कानपुर नाम के एक बडे शहर में मेरे चरण पडे और जीवन के चार महत्वपूर्ण वर्ष मैंने उस शहर में बिताए जिसे हम चाहें तो देश का सबसे बड़ा गाँव भी कह सकते हैं। उन चार सालों तक मैं इसी भ्रम में रहा कि मैं अब एक बडे शहर में रहना सीख गया हूँ।
लेकिन फिर मुझे एहसास कराया गया कि मैं तो बेहद सीधा सादा और छोटे शहर कि मानसिकता वाला आदमी हूँ। मैंने अभी तक जिन्दगी के वो चकाचौंध कर देने वाले नज़ारे देखे ही नहीं हैं। ऐसे नज़ारे तो केवल दिल्ली और मुम्बई जैसी जगह पर ही दिखेंगे। किस्मत से मेरी नौकरी ने जल्दी ही मुझे ऐसे शहरों के दर्शन भी करा दिए। दिल्ली में पूरे दो महीने बिताने के बाद अब मैं पिछले एक महीने से मुम्बई में रह रहा हूँ। धीरे धीरे यहाँ के तौर तरीके सीख गया हूँ। अब मैं भी ऐसी पतलून पहनने लगा हूँ जिसमें घुटने पर भी जेब होती है। मैं भी अब चार-पांच सौ रुपये के पकवान खा लेता हूँ। दो सौ रुपये का सिनेमा देख लेता हूँ। पाव रोटी को जब बर्गर और पिज्ज़ा को नाम पर बेचा जाता है तो मैं अब घबराता नही। दौड़ती भागती सडकों को पार करने में मैं अब डरता नहीं। एक रुमाल खरीदने के लिए एक घंटा सड़क पर चलना अब मुझे बुरा नहीं लगता।
पर कहीँ ना कहीँ वो छोटे शहर का 'बिहारी' चंदू डरता है। वो वापस जाना चाहता है उस शहर में जहाँ पन्द्रह मिनट कि दूरी पर सब कुछ मिल जाया करता था। जहाँ अगर एक शाम में एक सौ रुपये सिर्फ खाने पर खर्च हो जाते थे तो इसका मतलब होता था कि कम से कम पांच लोग तो खाने ज़रूर गए होंगे। वो शहर जहाँ लडकियां तो लड़के भी बिना बांह के कपडे पहनने में शर्माते थे। वो शहर जहाँ अभी भी हर छोटी चीज़ के लिए बेटा बाप से इजाज़त लेता है। जहाँ अगर किसी के बगीचे में पांच पपीते उगे होँ तो उसमें से तीन पडोसियों को बाँट दिए जाते हैं। जहाँ गरमी में पंखा चलता है, ए सी नहीं। जहाँ पिता क पास दिन भर के थकान के बाद भी बच्चों के साथ सब्जी कि दुकान जाने कि फुर्सत होती है। जहाँ लोग रात के दस बजे खाना खा कर सोने चले जाते हैं। जहाँ जिन्दगी आज भी इतने धीमे चलती है कि सबके पास सबके लिए वक़्त होता है। काश कि कुछ ऐसा हो जाये कि हसीन सपने देखने वाले इस चंदू लाल को वापस कोई उस असलियत कि नगरी में पहुँचा दे। काश....काश.....काश.....
1 comment:
bahut hi pyara likhate ho abhi bhi, khusi huyee ki tum itani unchayee par pahunch ke bhi khud ko nahi bhule nahi bhule humari choti choti si khusiyaan, khus raho beta humesha, mera yehi ashirwad hai tumko
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