Sunday, June 22, 2014

ख़ालीपन


लबों पर मुस्कान, आँखों में गीलापन है
सीने में जलन, पर दिल में एक अपनापन है।
ये कैसी याद है तेरी, मेरे साथी?
कि बाहर भीड़, पर अन्दर ख़ालीपन है।

जानता हूँ कि परे हो मेरे छुअन से
दिखते हो पास पर हो दूर कितने मन से
एहसास तो है होने का हम दोनों को एक दूजे का
पर दोनों के मन में एक सूनापन है
ये कैसी याद है तेरी, मेरे साथी?
कि बाहर भीड़ पर अन्दर ख़ालीपन है।

जी चाहता है लपक कर ले लूँ बाहों में तुम्हें
चुरा लूँ जग से और उड़ जाऊँ लेकर तुम्हें
पर कुछ तो है जो रोक रहा है हम दोनों को
वरना दिल में तो दोनों के बेहिसाब पागलपन है।
ये कैसी याद है तेरी, मेरे साथी?
कि बाहर भीड़ पर अन्दर ख़ालीपन है।

उलझे हो तुम भी दुनिया के झमेलों में
खोया हूँ मैं भी बेकार की बातों और मसलों में
न तुम ही निकलते हो इस उलझन से न मुझे ही राह दिखाते हो
ये कैसी बेचैनी, ये कैसा सूखापन है?
ये कैसी याद है तेरी, मेरे साथी?
कि बाहर भीड़, पर अन्दर ख़ालीपन है।

लबों पर मुस्कान, आँखों में गीलापन है
सीने में जलन, पर दिल में एक अपनापन है।
ये कैसी याद है तेरी, मेरे साथी?
कि बाहर भीड़, पर अन्दर ख़ालीपन है।




Friday, May 30, 2014

मोड़ तो आए बहुत

मोड़ तो आए बहुत
हर मोड़ पर मुड़ कर देखा
रास्ता बढ़ता ही जाता था
तेरा इंतज़ार
हर पल
करता ही जाता था

फिर चलते-चलते इक रोज़
थक गया मंज़िल की तलाश में
वहीं इक मोड़ पर तुम आए
कहा तुमने कि दे दूँ साथ अगले मोड़ तक
मैंने उठ कर देखा
अब रास्ते नहीं थे
न कोई मोड़ नज़र आया
न जाने कैसे
जो अब तक मोड़ था
इक राह का बस
तुम्हारे आ जाने से
मंज़िल बन गया।

माली या जादूगर

कल तक जो था मुरझाया सा
वो पौधा कैसे खिल उठा?
ये मरियल सा दिखता पौधा
इकदम से कैसे जी उठा?

कल तक तो न कोई कोंपल थी
न कलियों की उम्मीदें ही
इकदम से कैसे उपवन ये
फूलों का गुच्छा बन बैठा?

तुम आए थे तब सूखा था
सब थका-थका, सब रूखा था
ये सब फिर कैसे बदल गया?
हर तिनका कैसे जी उठा?

तुम कौन हो माली बतलाओ
माली हो या हो जादूगर?
बस इक तेरे आ जाने से 
आँगन-उपवन सब खिल उठा?

चाहे जो भी हो ये जादू
इसको तुम रोक न देना अब
मैं भी खिल जाऊँ फूलों-सा
जैसे सब कुछ है खिल उठा।


Saturday, April 26, 2014

'गर तुम होती तो

'गर तुम होती तो ये ख़ाली शाम यूँ ख़ाली न होती
इसकी ख़ामोशी की खनक में ये चुभन न होती
ये जो पेड़ों पर पत्ते उदास लटके पड़े हैं
तुम्हारे होने पर नाचते-लहराते
ये जो चट्टानों पर बेनूरी छाई है
'गर तुम होती तो इनपे मुस्कान होती

तुम नहीं हो तो तो इस नदी में कोई जान नहीं
वरना अँगड़ाई लिए इतराए फिरती थी मुई
ये अलसाई सुबहें तुम पर वारी जातीं
जो अब ऊँघती रहती हैं यूँ ही
शहर का शोर सुरीला हो जाता
जो लहू बहा देता है कानों से
'गर तुम होती तो ये चाँद शरमा जाता
इसमें ऐसी अकड़न न होती
'गर तुम होती तो ये ख़ाली शाम यूँ ख़ाली न होती
इसकी ख़ामोशी की खनक में ये चुभन न होती

तुम्हारे न होने से मेरे होने को एहसास 
और भी घटने लगा है
मैं हूँ इसी दुनिया का कोई ख़ास
ये भरम हटने लगा है
तुम आ जाते तो मिल जाती
मेरे वजूद को कोई औक़ात
तुम जो होती तो 
मुझे ख़ुद के होने का होता एहसास
'गर तुम होती तो यूँ मेरे जिस्म में
ज़िन्दा लाश सा वज़न न होता
'गर तुम होती तो ये ख़ाली शाम यूँ ख़ाली न होती
इसकी ख़ामोशी की खनक में ये चुभन न होती

तुम जो आ जाओ तो इक रोशनी आ जाए हरसू
तुम जो आ जाओ तो मैं फिर से जी लूँ
तुम न आ पाए तो बस रूह भटकती होगी
साँसें होंगी पर इक जान को तरसती होंगी
तुम जो 'गर होती तो हर साँस चहकती मेरी
होती 'गर तुम तो हर साँस में तुम्हीं होती
'गर तुम होती तो ये ख़ाली शाम यूँ ख़ाली न होती
इसकी ख़ामोशी की खनक में ये चुभन न होती....

Wednesday, March 26, 2014

आहना का प्यार

मैं आॅफिस से थका हुआ घर लौटा। अपनी साईकिल नीचे खड़ी कर पहली मंज़िल पर अपने किराए के फ़्लैट की घंटी बजाई तो अन्दर से आवाज़ आई, "चाचा आ गए, चाचा आ गए"। भाभी ने दरवाज़ा खोला तो दो बरस की आहना मुझे देख कर उछलने लगी। मैं काफ़ी थका हुआ था और आहना के साथ खेलने की ताक़त नहीं थी मेरे अन्दर। मैंने आहना के उत्साह का कोई जवाब नहीं दिया तो भाभी समझ गईं कि मैं थका हुआ हूँ। उन्होंने आहना को प्यार से समझाया, "चाचा अभी थके हुए हैं न बिट्टु, अभी तंग मत करो उनको।" भैया भाभी आहना को प्यार से बिट्टु बुलाते हैं मगर मैं ज़्यादातर आहना ही बुलाता हूँ। ये नाम मैंने ही रखा था उसका और इसलिए पसन्द है मुझे उसे आहना पुकारना। भाभी के समझाते ही आहना का मुँह लटक गया। पहले उसने ग़ुस्से से अपनी माँ को घूरा और फिर बड़ी भोली सी सूरत बना कर मुझे निहारा। मेरे पास आकर मेरी पैंट अपनी मुट्ठी में पकड़ कर कहा, "चाचा, आप सच में थक गए हैं या मम्मी झूठ बोल रही है?" मैंने उससे पीछा छुड़ाने के लिए कड़ी आवाज़ में कहा, "हाँ, बहुत थक गए हैं, तंग मत करना हमको।"

आहना मुँह लटका कर अपने कमरे में चली गई और मैं नहाने चला गया। नहा धोकर मैं अपनी किताब लेकर पढ़ने बैठ गया। थोड़ी देर बाद देखा कि आहना अपने खिलौने हाथ में लिए मेरे कमरे के दरवाज़े पर खड़ी है। मैं उसे देखते ही झल्ला उठा और चिल्लाया, "भाभी, इसको ले जाइए यहाँ से। ये पढ़ने नहीं देगी मुझे।" आॅफिस की थकान के बाद सिविल सेवा की तैयारी का तनाव मुझ पर हावी था। आहना मेरा चिल्लाना सुनकर डर गई और ख़ुद ही अपने खिलौने लेकर सिसकती हुई अपने कमरे में चली गई। मैं थोड़ी देर पढ़ता रहा और शायद आहना दूसरे कमरे में खेलती रही या रोती रही, मैं नहीं जान पाया। 

क़रीब एक घण्टे बाद आहना फिर मेरे कमरे के दरवाज़े पर खड़ी थी। उसकी आँखें थोड़ी गीली थीं और उसके हाथ में एक लाल क़लम थी, शायद भैया की होगी। मैंने उसे हल्के ग़ुस्से से देखा तो वो बोल पड़ी, "चाचा, प्लीज़ चिल्लाइएगा नहीं। हम बस आपसे एक ज़रूरी बात बोलने आए हैं।" दो साल की बच्ची के मुँह से इतनी साफ़ भाषा सुनकर मैं दंग रह गया। मेरा ग़ुस्सा काफ़ूर होकर आश्चर्य में बदल गया। मैंने कहा, "बोलो"। उसने अपने हाथ में ली हुई लाल क़लम से अपने माथे पर एक लकीर खींची। मैंने पूछा, "ये क्या कर रही हो?" वो अपनी मासूम आवाज़ में थोड़े ग़ुस्से और काफ़ी अधिकार से बोली, "समझ नहीं आ रहा क्या? सिन्दूर लगा रहे हैं।" मैं चौंक गया। उसकी ये बात सुनकर भाभी किचन से भागती हुई आई और उसके हाथ से क़लम छीनते हुए कहा, "पागल हो क्या? छोटे बच्चे सिन्दूर नहीं लगाते। सिन्दूर शादी के बाद लगाते हैं।" भाभी ने शायद ये बताना ज़रूरी नहीं समझा कि आहना के हाथ में क़लम है न कि सिन्दूर। मैं अब भी इसी आश्चर्य में था कि आहना ने ऐसी बात सीखी कहाँ से। मैं मन ही मन भाभी को दोष देने लगा कि वो क्यों बच्ची के सामने ऐसे टीवी सीरियल्स देखती हैं जिससे बच्चे ये सब उलटी-सीधी बातें सीखते हैं।

मेरे विचारों के क्रम को आहना की आवाज़ ने तोड़ा। वो भाभी से कह रही थी, "हम जानते हैं मम्मा कि सिन्दूर शादी के बाद लगाते हैं। मेरा शादी हो गया है।" ये सुनकर मेरी और भाभी दोनों की हँसी छूट पड़ी। मैंने हँसते हुए पूछा, "किससे हो गई तुम्हारी शादी आहना?" वो झट से बोली, "आपसे चाचा। क्योंकि हम आपसे बहुत प्यार करते हैं न। और आप भी तो हमसे बहुत प्यार करते हैं। करते हैं न चाचा?" वो अपनी गर्दन एक कर झुका कर बोली। मैं उसकी वो भोली शक्ल देख कर ख़ुशी से लबालब भर गया। आॅफिस की सारी थकान ग़ायब हो गई और पढ़ाई की भी टेंशन न रही। मैं अपनी कुर्सी से उठा और दौड़ कर आहना को अपनी गोद में उठा लिया। "चाचा तुमसे बहुत प्यार करते हैं आहना, और चाचा भी तुमसे शादी करेंगे।" मुझे अपनी कहीं ये बातें बिल्कुल अटपटी नहीं लग रही थीं। मैं उसे ये नहीं समझाना चाहता था कि वो जो कह रही है वो बेवक़ूफ़ी है और उसे अभी शादी का मतलब नहीं समझ आता। मैं उसे ये भी नहीं समझाना चाहता था कि मेरा और उसका रिश्ता बाप बेटी का है। मैं तो बस उससे इतना समझना चाहता था कि कैसे वो अपने ग़ुस्सा करने वाले चाचा से इतना प्यार कर सकती है, कैसे उसके प्यार में कोई स्वार्थ नहीं, कोई बनावट नहीं़, कोई छल नहीं। मेरे पास ईस वक़्त उसे समझाने के लिए, सिखाने के लिए कुछ नहीं था। मैं तो ख़ुद उससे सीखना चाहता था कि प्यार कैसे किया जाता है। मैंने उसका माथा चूमते हुए कहा, "आई लव यू आहना" और मेरी उस दो बरस की परी ने मेरे गाल पर पप्पी देकर कहा, "आई लव यू टू चाचा"।




Wednesday, November 27, 2013

महिमा श्री चपरासी जी की

हर दफ्तर में साहब को लगता है कि सब कुछ उनके हुक्म से चल रहा है और बाबू को लगता है कि सब उसकी कलम की महिमा है। लेकिन एक शख्स ऐसा है जिसके होने का सबब आज तक कोई नहीं समझ पाया। हर सरकारी ऑफिस में किसी साहब के चैंबर के बाहर कुर्सी या स्टूल पर या किसी साहब के पीछे फ़ाइल उठाए आपको सफ़ेद या ख़ाकी वर्दी पहने यह शख्स नज़र आ जाएगा जिसे चपरासी या peon कहते हैं।

ये समझना असाना नहीं है की चपरासी जी करते क्या हैं। ये अँग्रेजी सरकार के भारतीय ज़मीन पर किए जाने वाले अनेक अचंभित कर देने वाले आविष्कारों में से एक है। 'साहब' तो अंग्रेज़ खुद थे, सो उन्होने दो नई जातियों के आविष्कार किए। एक तो 'बाबू' जिसकी जितनी बातें की जाएँ कम हैं, और दूसरा 'चपरासी'। चपरासी का कोई work plan नहीं होता, उसके कोई targets भी नहीं होते। लेकिन फिर भी चपरासी सरकारी तंत्र का एक अभिन्न अंग है। 

अक्सर साहब के चैंबर के बाहर बैठा चपरासी सबसे उच्च कोटि का  चपरासी होता है। एक तो उसके पास बैठने को अपनी कुर्सी होती है और इस मामले में वो साहब और बाबू के समतुल्य होता है। दूसरे ये कि साहब के चैंबर में प्रवेश का एकाधिकार सिर्फ उसके पास होता है। वो चाहे तो आपको एक मिनट में साहब से मिलवा दे या फिर वो अपनी पे उतार आए तो किसी मायावी मीटिंग में साहब को इतना busy बता दे की आप कभी साहब से मिल ही न पाएँ। ऐसे चपरासियों के नाम नहीं होते। पहले गोरे साहब इन्हें "कोई है?" के नाम से बुलाते थे और अब भूरे साहब अपनी table पर लगी घंटी बजा कर बुलाते हैं। घंटी बजाने वाले साहब को अक्सर ये नहीं पता होता की घंटी सुनने वाला चपरासी कहाँ से अचानक प्रकट हो जाता है। और साहब के आदेश के पालन के बाद फिर से अंतर्ध्यान हो जाता है। परंतु उच्च कोटि का चपरासी होना किसी चपरासी के लिए केवल गर्व का नहीं बल्कि चिंता की भी विषय होता है। जीतने बड़े साहब का चपरासी उतना ही ज़्यादा काम। 

जो छोटे साहब लोगों के चपरासी होते हैं, उनमें भी एक अलग attitude होता है जो न सिर्फ आने वाली आम जनता पर दिखता है बल्कि साहब को भी उस attitude का शिकार होना पड़ता है। कई बार घंटी बजाने के बाद भी जब चपरासी नहीं आता तो साहब को मजबूरी में आकर खुद ही पानी लेकर पीना पड़ता है और इससे ज़्यादा अपमानजनक बात किसी भी सरकारी साहब के लिए कुछ और नहीं हो सकती की उन्हें पानी भी खुद ही लेकर पीना पड़ता है। 

चपरासियों की भी कई श्रेणियाँ होती हैं। कुछ जो दफ्तर के बड़े साहब के साथ लगे होते हैं उनके कपड़े बर्फ की तरह उजले और कंधे पर किसी सौन्दर्य प्रतियोगिता की विजेता की तरह के sash भी होता है, और कभी कभी एक ऊंची पगड़ी भी। लेकिन जो मध्यम दर्जे के साहब का चपरासी होता है, वो साल में केवल एक बार अपनी वर्दी धुलवाता है, और जिस चपरासी की duty किसी बाबू के साथ होती है, वो अपने को सदैव छुट्टी पर ही मानता है और वर्दी तभी पहनता है जब उसका mood होता है। 

मुझ जैसे नौसिखिए जो अपनी पानी की बोतल खुद लेकर आते हैं और जो चाय भी नहीं पीते, जो अपने चैंबर का दरवाजा खुद खोल्न और बंद करना जानते हैं और जिन्हें फ़ाइल उठाने में भी कोई तकलीफ नहीं होती, उन्हें चपरासी बड़ी हिकारत और नफरत भरी निगाहों से देखते हैं। उनमें ऐसी कानाफूसी होती रहती है कि ये भी भला कोई साहब हैं जो खुद स्कूल के बच्चे की तरह पानी की बोतल लेकर दफ्तर आते हैं। साहब तो एओ फलां-फलां साहब थे जिनके आने से पहले चपरासी दरवाजा खोले, कमरे की बत्ती और पंखा चलाये कुर्सी खींचने के लिए तैनात रहते थे। उन साहब के पीने का पानी चपरासी गिलास में डालकर उसपर ढक्कन भी रख दिया करते और पानी पीते ही तुरंत refill करने के लिए दौड़ पड़ते। एक और चपरासी तो उनके साथ गाड़ी में सिर्फ दरवाजा खोलने और पानी पिलाने के लिए ही बैठता था। वो ठाठ भी क्या ठाठ थे। ये तो गरीब साहब हैं। खुद ही अपना बैग उठाते हैं और खुद ही अपनी फ़ाइल एक कमरे से दूसरे में लेकर चले जाते हैं। 

ऐसे नौसिखिये साहब लोगों की वजह से चपरासियों की कीमत कम हो जाती है। क्योंकि अगर हर साहब अपनी गाड़ी का दरवाजा भी खोलने लगें और अपने चैंबर का दरवाजा भी; अगर वो खुद ही बत्ती जला भी लें और बुझा भी लें और पानी भी खुद ही लेकर पी लें तो कैसे चलेगा भला? और तो और अगर साहब लोग बिना चपरासी के पर्ची लाये सबसे मिलने लगे तो चपरासी की power ही क्या रह जाएगी। ऐसे साहब खतरा हैं चपरासी समाज के लिए और इनका विरोध करना चाहिए। 

Sunday, September 15, 2013

मत मारो मेरी हिन्दी को

कल हिन्दी दिवस थी। एक बार फिर लोगों ने कसम खाई की हिन्दी को और बढ़ावा देने की पूरी कोशिश करेंगे। एक बार फिर हिन्दी के ठेकेदारों ने इंग्लिश और उर्दू के खिलाफ जहर उगला और कोशिश की कि हिन्दी को और भी संस्कृत जैसा बना दें। और एक बार एक आम हिन्दी बोलने वाला नाराज़ होने से ज़्यादा कुछ न कर पाया। 

14 सितम्बर को हिन्दी दिवस इसलिए नहीं मनाते कि इस दिन कोई बहुत बड़ा कवि या लेखक पैदा हुआ था। हम इस दिन हिन्दी दिवस इसलिए मनाते हैं क्योंकि देश के संविधान सभा ने इसी दिन हिन्दी को आज़ाद भारत कि शासकीय भाषा मान लिया था। ये उतना ही दबंग कदम था जितना कि यूरोप का किसी एक भाषा को अपना लेना। इससे पहले भी शासकीय भाषा के रूप में फारसी और अंग्रेज़ी भारत पर थोपी गयी थी लेकिन वो वक़्त और था। अब ये हमारा अपना देश है और इसलिए लोगों से सोचा कि जैसे ये देश कभी मुग़लों के अधीन था और कभी अंग्रेजों के तो क्यों न अब इसे हिन्दी के अधीन कर दिया जाये।
कहीं न कहीं वे लोग हिन्दी को समझने में चूक कर गए। हिन्दी संस्कृत नहीं है। हिन्दी फारसी या अंग्रेज़ी की दुश्मन भी नहीं है। ये तो लोगों कि बोली है। शायद आज़ादी आने कि इतनी खुशी थी या पाकिस्तान के अलग हो जाने का इतना गुस्सा कि हमने सोचा कि हम अपनी भाषा ऐसी बनाएँगे जो सबसे अलग हो और इस सब में ये ही भूल गए कि भाषा जनता से बनती है सरकार की तरफ से थोपी नहीं जा सकती। 

जब तक भारत पर मुग़ल राज स्थापित नहीं हुआ था, तब तक शायद कोई एक ऐसी भाषा नहीं थी जो पूरे भारत को एक सूत्र में बांधती हो। हम भी शायद आज के यूरोप जैसे थे। कहने को संस्कृत तो थी लेकिन उसे ब्राह्मणों ने अपनी बपौती बना कर उसका दम घोंट दिया था। दक्षिण भारत में तमिल, मलयालम, तेलुगू और कन्नड़ अपने आप में इतनी शानदार भाषाएँ थी कि उन्हे बदलना आसान नहीं था। न सिर्फ वे साहित्य और संगीत की भाषा थे बल्कि वे जनता की भी भाषाएँ थी। और शायद इसलिए आज भी ये भाषाएँ उसी दम खम से टिकी हैं जिस शान से वे हजारों साल पहले थी। लेकिन उत्तर भारत में हालात और थे। यहाँ ब्राह्मणों ने संस्कृत का ये हाल कर डाला था की जनता की अपनी हजारों बोलियाँ पनप चुकी थी। पाली और प्राकृत से निकली मारवाड़ी, मेवाती, अवधी, मैथिली, बुन्देली, ब्रज, पहाड़ी सब अपने आप में एक अलग संस्कृति और उसके लोगों के जीवन की कहानियाँ सुनाती थी।

जब दिल्ली में मुस्लिम राज आया तो फारसी सरकारी भाषा हो गयी और सारे कागजी काम फारसी में होने लगे। लेकिन इसका भी जल्दी ही संस्कृत वाला ही हश्र होना था। मुग़ल सेना के सिपाहियों ने अपनी बोलियों और फारसी के शब्दों से एक नयी भाषा का ईजाद किया जो उर्दू कहलाने लगी। जैसे संकृत के ब्राह्मणों ने कभी देशी बोलियों को तवज्जो नहीं दी उसी तरह फारसी और अरबी के शायरों ने उर्दू की भी अवहेलना की। करीब 1800 ईस्वी के बाद उर्दू ने थोड़ी इज्ज़त पाना शुरू की।  ग़ालिब ने अपनी उर्दू से ज़ौक़ की फारसी ले लड़ाई जारी रखी। इसके 300 साल पहले तुलसीदास ने रामचरितमानस लिखी थी जो अवधी में थी। दक्षिण भारत में भी जहां तक मुग़ल पहुंचे वहाँ नयी तरह की भाषाओं का आविष्कार हुआ। और हैदराबाद के आस पास दक्खिनी हिन्दी पनपने लगी। धीरे धीरे उर्दू में देसी शब्दों का इस्तेमाल बढ़ता गया और 1900 तक ये बता पाना मुश्किल हो गया की उर्दू कितनी फारसी है और कितनी हिंदुस्तानी। अंग्रेजों का राज तब तक पूरी तरह से कायम हो चुका था और अंग्रेज़ी नयी सरकारी भाषा थी। लेकिन अंग्रेजों ने जमीनी दस्तावेज़ों को पुराने तरीके से चलते रहने दिया। 

ऐसे में उर्दू जनता की भाषा बनने लगी, लेकिन कुछ 'फारसी ब्राह्मणों' को उर्दू के देसीकरण को रोकने की कोशिश की और तब हिन्दी का जन्म हुआ। इसमें उर्दू के भी शब्द थे, और देसी भाषाओं के और भी ज़्यादा शब्द थे।  मल्लिक मोहम्मद जायसी पहले ही ऐसी हिन्दी में लिख चुके थे। भारतेन्दु हरिश्चंद्र भी अब इस हिन्दी में लिखने लगे। और इसे हिंदुस्तानी भाषा कहा जाने लगा। ये कोई एक भाषा नहीं थी। इसकी कई बोलियाँ थी। दिल्ली और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खड़ी बोली पनपने लगी और राजस्थान की मारवाड़ी से कांगड़ा की पहाड़ी तक और बिहार की मैथिली से हैदराबाद की दक्खिनी तक और भोपाली से लेकर मुंबइया तक हिन्दी के कई प्रकार बन गए। और यही वजह थी की हिन्दी लोगों की बोली बन गयी। क्योंकि हिन्दी किसी सरकार की तरफ से नहीं बल्कि लोगों की मर्ज़ी के हिसाब से बदलती रही।

जब भारत में सिनेमा की शुरुवात हुई तो कई उर्दू के ऐसे लेखक जो उर्दू के संस्कृत जैसी होती हालत से दुखी थी, वे सिनेमा की तरफ आए। कई बंगाली लेखक और मराठी लेखकों ने भी सिनेमा की हिन्दी को नए आयाम दिये। और अंग्रेज़ी को भी अपनाने में हिन्दी ने कोई हिचकिचाहट कभी नहीं दिखाई। अब बैंग्लोर में भी एक नयी तरह की हिन्दी का ईजाद हो रहा है जो लोगों की बोली है। 

लेकिन इस सब के बीच हमने हिन्दी को सरकारी भाषा अर्थात राजभाषा बनाकर एक अजीब सी गलती कर डाली। एक भाषा जो अभी सौ साल पुरानी भी नहीं थी और अपने नए जन्म में खुशी से इठला रही थी, हमने उसे किशोरावस्था में ही सरकार के हाथ गिरवी रख दी। और हिन्दी पर संस्कृत थोप दी गयी। हमने ये नहीं सोचा कि अगर संस्कृत जनता कि भाषा होती तो वो भी तमिल की तरह आज भी ज़िंदा होती। लेकिन हिन्दी पर संस्कृत थोप कर हमने उसे उर्दू और अंग्रेज़ी के खिलाफ एक जंग में खड़ा कर दिया। और तो और हमने हिन्दी को हिन्दी की ही बोलियों के खिलाफ खड़ा कर दिया।

इसलिए सरकारी हिन्दी में रिपोर्ट (अंग्रेज़ी) को प्रतिवेदन (संस्कृत) कर दिया, दारोगा (उर्दू)/इंस्पेक्टर (अँग्रेजी)  को निरीक्षक (संस्कृत), किसान (देसी)/ काश्तकार (उर्दू) को कृषक (संस्कृत) कर दिया। और तो और हमने "शुद्ध हिन्दी" नाम का एक ऐसा दानव बनाया जिसने हिन्दी को पूरी तरह खिलने से पहले ही मारने का प्लान बना दिया। हिन्दी कि खूबसूरती इसमें है कि खूबसूरती को सौन्दर्य कहना ज़रूरी नहीं है और न ही ज़रूरत को आवश्यकता कहना आवश्यक है। दूध को दुग्ध कहना और कंप्यूटर को संगणक कहना बेवकूफी है। हिन्दी बीसवीं सदी की भाषा है। हम क्यों इसे वक़्त में पीछे धकेलना चाहते हैं? अगर इसे इक्कीसवी सदी में अपना वजूद बनाए रखना है तो इसे अंग्रेज़ी और उर्दू की दुश्मन बन कर नहीं बल्कि उर्दू, अंग्रेज़ी और सभी देशी भाषाओं की दोस्त बन कर रहना पड़ेगा।

दक्षिण भारत में भी हिन्दी तभी फैलेगी जब ये तमिल से दुश्मनी करने की बजाय उसे अपनाएगी। संस्कृत को बचाए रखने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन उसके लिए हम एक नयी भाषा को अपने नैचुरल तरीके से पनपने से न रोकें। अगर इस हिन्दी दिवस को कोई संकल्प लेना ही है तो ये संकल्प लें कि हिन्दी को लोगों की भाषा बनने दें और जैसा भी लोग चाहें वैसा रूप हिन्दी को लेने दें। चाहे वो बॉलीवुड से आए, इंटरनेट से या फिर हिन्दी की किताबों से। हिन्दी पर किसी भी प्राचीन भाषा से दंगल का भार न डालें। फिर शायद हमारे पास ऐसी एक सरकारी भाषा होगी जो सचमुच पूरे भारत को अपना सके।