Friday, July 25, 2014

जो चाहा तुम्हें

जो चाहा तुम्हें तो क्या कसूर मेरा
मैं क्या जानता था कि पत्थर हो तुम
मैंने तो सब कुछ लुटा डाला तुम पर
क्या करूँ जो बेपरवाह हो तुम

न माँगा तुमसे कभी कुछ
न अब कुछ चाहता हूँ
सुकूँ से जान दे पाऊँ
यही बस माँगता हूँ

न दे पाओ ये भी
तो बस एहसान करना
मेरी मय्यत में तुम
इनकार करना

कि मैं तेरा ही कोई  
इक सगा था
यूँ मुँह फेर लेना लाश से  मेरी तुम कि
लगे कोई यूँ ही
बेआसरा था

जो चाहा तुम्हें तो क्या कसूर मेरा
मैं क्या जानता था कि पत्थर हो तुम
मैंने तो सब कुछ लुटा डाला तुम पर
क्या करूँ जो बेपरवाह हो तुम

Sunday, June 22, 2014

ख़ालीपन


लबों पर मुस्कान, आँखों में गीलापन है
सीने में जलन, पर दिल में एक अपनापन है।
ये कैसी याद है तेरी, मेरे साथी?
कि बाहर भीड़, पर अन्दर ख़ालीपन है।

जानता हूँ कि परे हो मेरे छुअन से
दिखते हो पास पर हो दूर कितने मन से
एहसास तो है होने का हम दोनों को एक दूजे का
पर दोनों के मन में एक सूनापन है
ये कैसी याद है तेरी, मेरे साथी?
कि बाहर भीड़ पर अन्दर ख़ालीपन है।

जी चाहता है लपक कर ले लूँ बाहों में तुम्हें
चुरा लूँ जग से और उड़ जाऊँ लेकर तुम्हें
पर कुछ तो है जो रोक रहा है हम दोनों को
वरना दिल में तो दोनों के बेहिसाब पागलपन है।
ये कैसी याद है तेरी, मेरे साथी?
कि बाहर भीड़ पर अन्दर ख़ालीपन है।

उलझे हो तुम भी दुनिया के झमेलों में
खोया हूँ मैं भी बेकार की बातों और मसलों में
न तुम ही निकलते हो इस उलझन से न मुझे ही राह दिखाते हो
ये कैसी बेचैनी, ये कैसा सूखापन है?
ये कैसी याद है तेरी, मेरे साथी?
कि बाहर भीड़, पर अन्दर ख़ालीपन है।

लबों पर मुस्कान, आँखों में गीलापन है
सीने में जलन, पर दिल में एक अपनापन है।
ये कैसी याद है तेरी, मेरे साथी?
कि बाहर भीड़, पर अन्दर ख़ालीपन है।




Friday, May 30, 2014

मोड़ तो आए बहुत

मोड़ तो आए बहुत
हर मोड़ पर मुड़ कर देखा
रास्ता बढ़ता ही जाता था
तेरा इंतज़ार
हर पल
करता ही जाता था

फिर चलते-चलते इक रोज़
थक गया मंज़िल की तलाश में
वहीं इक मोड़ पर तुम आए
कहा तुमने कि दे दूँ साथ अगले मोड़ तक
मैंने उठ कर देखा
अब रास्ते नहीं थे
न कोई मोड़ नज़र आया
न जाने कैसे
जो अब तक मोड़ था
इक राह का बस
तुम्हारे आ जाने से
मंज़िल बन गया।

माली या जादूगर

कल तक जो था मुरझाया सा
वो पौधा कैसे खिल उठा?
ये मरियल सा दिखता पौधा
इकदम से कैसे जी उठा?

कल तक तो न कोई कोंपल थी
न कलियों की उम्मीदें ही
इकदम से कैसे उपवन ये
फूलों का गुच्छा बन बैठा?

तुम आए थे तब सूखा था
सब थका-थका, सब रूखा था
ये सब फिर कैसे बदल गया?
हर तिनका कैसे जी उठा?

तुम कौन हो माली बतलाओ
माली हो या हो जादूगर?
बस इक तेरे आ जाने से 
आँगन-उपवन सब खिल उठा?

चाहे जो भी हो ये जादू
इसको तुम रोक न देना अब
मैं भी खिल जाऊँ फूलों-सा
जैसे सब कुछ है खिल उठा।


Saturday, April 26, 2014

'गर तुम होती तो

'गर तुम होती तो ये ख़ाली शाम यूँ ख़ाली न होती
इसकी ख़ामोशी की खनक में ये चुभन न होती
ये जो पेड़ों पर पत्ते उदास लटके पड़े हैं
तुम्हारे होने पर नाचते-लहराते
ये जो चट्टानों पर बेनूरी छाई है
'गर तुम होती तो इनपे मुस्कान होती

तुम नहीं हो तो तो इस नदी में कोई जान नहीं
वरना अँगड़ाई लिए इतराए फिरती थी मुई
ये अलसाई सुबहें तुम पर वारी जातीं
जो अब ऊँघती रहती हैं यूँ ही
शहर का शोर सुरीला हो जाता
जो लहू बहा देता है कानों से
'गर तुम होती तो ये चाँद शरमा जाता
इसमें ऐसी अकड़न न होती
'गर तुम होती तो ये ख़ाली शाम यूँ ख़ाली न होती
इसकी ख़ामोशी की खनक में ये चुभन न होती

तुम्हारे न होने से मेरे होने को एहसास 
और भी घटने लगा है
मैं हूँ इसी दुनिया का कोई ख़ास
ये भरम हटने लगा है
तुम आ जाते तो मिल जाती
मेरे वजूद को कोई औक़ात
तुम जो होती तो 
मुझे ख़ुद के होने का होता एहसास
'गर तुम होती तो यूँ मेरे जिस्म में
ज़िन्दा लाश सा वज़न न होता
'गर तुम होती तो ये ख़ाली शाम यूँ ख़ाली न होती
इसकी ख़ामोशी की खनक में ये चुभन न होती

तुम जो आ जाओ तो इक रोशनी आ जाए हरसू
तुम जो आ जाओ तो मैं फिर से जी लूँ
तुम न आ पाए तो बस रूह भटकती होगी
साँसें होंगी पर इक जान को तरसती होंगी
तुम जो 'गर होती तो हर साँस चहकती मेरी
होती 'गर तुम तो हर साँस में तुम्हीं होती
'गर तुम होती तो ये ख़ाली शाम यूँ ख़ाली न होती
इसकी ख़ामोशी की खनक में ये चुभन न होती....

Wednesday, March 26, 2014

आहना का प्यार

मैं आॅफिस से थका हुआ घर लौटा। अपनी साईकिल नीचे खड़ी कर पहली मंज़िल पर अपने किराए के फ़्लैट की घंटी बजाई तो अन्दर से आवाज़ आई, "चाचा आ गए, चाचा आ गए"। भाभी ने दरवाज़ा खोला तो दो बरस की आहना मुझे देख कर उछलने लगी। मैं काफ़ी थका हुआ था और आहना के साथ खेलने की ताक़त नहीं थी मेरे अन्दर। मैंने आहना के उत्साह का कोई जवाब नहीं दिया तो भाभी समझ गईं कि मैं थका हुआ हूँ। उन्होंने आहना को प्यार से समझाया, "चाचा अभी थके हुए हैं न बिट्टु, अभी तंग मत करो उनको।" भैया भाभी आहना को प्यार से बिट्टु बुलाते हैं मगर मैं ज़्यादातर आहना ही बुलाता हूँ। ये नाम मैंने ही रखा था उसका और इसलिए पसन्द है मुझे उसे आहना पुकारना। भाभी के समझाते ही आहना का मुँह लटक गया। पहले उसने ग़ुस्से से अपनी माँ को घूरा और फिर बड़ी भोली सी सूरत बना कर मुझे निहारा। मेरे पास आकर मेरी पैंट अपनी मुट्ठी में पकड़ कर कहा, "चाचा, आप सच में थक गए हैं या मम्मी झूठ बोल रही है?" मैंने उससे पीछा छुड़ाने के लिए कड़ी आवाज़ में कहा, "हाँ, बहुत थक गए हैं, तंग मत करना हमको।"

आहना मुँह लटका कर अपने कमरे में चली गई और मैं नहाने चला गया। नहा धोकर मैं अपनी किताब लेकर पढ़ने बैठ गया। थोड़ी देर बाद देखा कि आहना अपने खिलौने हाथ में लिए मेरे कमरे के दरवाज़े पर खड़ी है। मैं उसे देखते ही झल्ला उठा और चिल्लाया, "भाभी, इसको ले जाइए यहाँ से। ये पढ़ने नहीं देगी मुझे।" आॅफिस की थकान के बाद सिविल सेवा की तैयारी का तनाव मुझ पर हावी था। आहना मेरा चिल्लाना सुनकर डर गई और ख़ुद ही अपने खिलौने लेकर सिसकती हुई अपने कमरे में चली गई। मैं थोड़ी देर पढ़ता रहा और शायद आहना दूसरे कमरे में खेलती रही या रोती रही, मैं नहीं जान पाया। 

क़रीब एक घण्टे बाद आहना फिर मेरे कमरे के दरवाज़े पर खड़ी थी। उसकी आँखें थोड़ी गीली थीं और उसके हाथ में एक लाल क़लम थी, शायद भैया की होगी। मैंने उसे हल्के ग़ुस्से से देखा तो वो बोल पड़ी, "चाचा, प्लीज़ चिल्लाइएगा नहीं। हम बस आपसे एक ज़रूरी बात बोलने आए हैं।" दो साल की बच्ची के मुँह से इतनी साफ़ भाषा सुनकर मैं दंग रह गया। मेरा ग़ुस्सा काफ़ूर होकर आश्चर्य में बदल गया। मैंने कहा, "बोलो"। उसने अपने हाथ में ली हुई लाल क़लम से अपने माथे पर एक लकीर खींची। मैंने पूछा, "ये क्या कर रही हो?" वो अपनी मासूम आवाज़ में थोड़े ग़ुस्से और काफ़ी अधिकार से बोली, "समझ नहीं आ रहा क्या? सिन्दूर लगा रहे हैं।" मैं चौंक गया। उसकी ये बात सुनकर भाभी किचन से भागती हुई आई और उसके हाथ से क़लम छीनते हुए कहा, "पागल हो क्या? छोटे बच्चे सिन्दूर नहीं लगाते। सिन्दूर शादी के बाद लगाते हैं।" भाभी ने शायद ये बताना ज़रूरी नहीं समझा कि आहना के हाथ में क़लम है न कि सिन्दूर। मैं अब भी इसी आश्चर्य में था कि आहना ने ऐसी बात सीखी कहाँ से। मैं मन ही मन भाभी को दोष देने लगा कि वो क्यों बच्ची के सामने ऐसे टीवी सीरियल्स देखती हैं जिससे बच्चे ये सब उलटी-सीधी बातें सीखते हैं।

मेरे विचारों के क्रम को आहना की आवाज़ ने तोड़ा। वो भाभी से कह रही थी, "हम जानते हैं मम्मा कि सिन्दूर शादी के बाद लगाते हैं। मेरा शादी हो गया है।" ये सुनकर मेरी और भाभी दोनों की हँसी छूट पड़ी। मैंने हँसते हुए पूछा, "किससे हो गई तुम्हारी शादी आहना?" वो झट से बोली, "आपसे चाचा। क्योंकि हम आपसे बहुत प्यार करते हैं न। और आप भी तो हमसे बहुत प्यार करते हैं। करते हैं न चाचा?" वो अपनी गर्दन एक कर झुका कर बोली। मैं उसकी वो भोली शक्ल देख कर ख़ुशी से लबालब भर गया। आॅफिस की सारी थकान ग़ायब हो गई और पढ़ाई की भी टेंशन न रही। मैं अपनी कुर्सी से उठा और दौड़ कर आहना को अपनी गोद में उठा लिया। "चाचा तुमसे बहुत प्यार करते हैं आहना, और चाचा भी तुमसे शादी करेंगे।" मुझे अपनी कहीं ये बातें बिल्कुल अटपटी नहीं लग रही थीं। मैं उसे ये नहीं समझाना चाहता था कि वो जो कह रही है वो बेवक़ूफ़ी है और उसे अभी शादी का मतलब नहीं समझ आता। मैं उसे ये भी नहीं समझाना चाहता था कि मेरा और उसका रिश्ता बाप बेटी का है। मैं तो बस उससे इतना समझना चाहता था कि कैसे वो अपने ग़ुस्सा करने वाले चाचा से इतना प्यार कर सकती है, कैसे उसके प्यार में कोई स्वार्थ नहीं, कोई बनावट नहीं़, कोई छल नहीं। मेरे पास ईस वक़्त उसे समझाने के लिए, सिखाने के लिए कुछ नहीं था। मैं तो ख़ुद उससे सीखना चाहता था कि प्यार कैसे किया जाता है। मैंने उसका माथा चूमते हुए कहा, "आई लव यू आहना" और मेरी उस दो बरस की परी ने मेरे गाल पर पप्पी देकर कहा, "आई लव यू टू चाचा"।




Wednesday, November 27, 2013

महिमा श्री चपरासी जी की

हर दफ्तर में साहब को लगता है कि सब कुछ उनके हुक्म से चल रहा है और बाबू को लगता है कि सब उसकी कलम की महिमा है। लेकिन एक शख्स ऐसा है जिसके होने का सबब आज तक कोई नहीं समझ पाया। हर सरकारी ऑफिस में किसी साहब के चैंबर के बाहर कुर्सी या स्टूल पर या किसी साहब के पीछे फ़ाइल उठाए आपको सफ़ेद या ख़ाकी वर्दी पहने यह शख्स नज़र आ जाएगा जिसे चपरासी या peon कहते हैं।

ये समझना असाना नहीं है की चपरासी जी करते क्या हैं। ये अँग्रेजी सरकार के भारतीय ज़मीन पर किए जाने वाले अनेक अचंभित कर देने वाले आविष्कारों में से एक है। 'साहब' तो अंग्रेज़ खुद थे, सो उन्होने दो नई जातियों के आविष्कार किए। एक तो 'बाबू' जिसकी जितनी बातें की जाएँ कम हैं, और दूसरा 'चपरासी'। चपरासी का कोई work plan नहीं होता, उसके कोई targets भी नहीं होते। लेकिन फिर भी चपरासी सरकारी तंत्र का एक अभिन्न अंग है। 

अक्सर साहब के चैंबर के बाहर बैठा चपरासी सबसे उच्च कोटि का  चपरासी होता है। एक तो उसके पास बैठने को अपनी कुर्सी होती है और इस मामले में वो साहब और बाबू के समतुल्य होता है। दूसरे ये कि साहब के चैंबर में प्रवेश का एकाधिकार सिर्फ उसके पास होता है। वो चाहे तो आपको एक मिनट में साहब से मिलवा दे या फिर वो अपनी पे उतार आए तो किसी मायावी मीटिंग में साहब को इतना busy बता दे की आप कभी साहब से मिल ही न पाएँ। ऐसे चपरासियों के नाम नहीं होते। पहले गोरे साहब इन्हें "कोई है?" के नाम से बुलाते थे और अब भूरे साहब अपनी table पर लगी घंटी बजा कर बुलाते हैं। घंटी बजाने वाले साहब को अक्सर ये नहीं पता होता की घंटी सुनने वाला चपरासी कहाँ से अचानक प्रकट हो जाता है। और साहब के आदेश के पालन के बाद फिर से अंतर्ध्यान हो जाता है। परंतु उच्च कोटि का चपरासी होना किसी चपरासी के लिए केवल गर्व का नहीं बल्कि चिंता की भी विषय होता है। जीतने बड़े साहब का चपरासी उतना ही ज़्यादा काम। 

जो छोटे साहब लोगों के चपरासी होते हैं, उनमें भी एक अलग attitude होता है जो न सिर्फ आने वाली आम जनता पर दिखता है बल्कि साहब को भी उस attitude का शिकार होना पड़ता है। कई बार घंटी बजाने के बाद भी जब चपरासी नहीं आता तो साहब को मजबूरी में आकर खुद ही पानी लेकर पीना पड़ता है और इससे ज़्यादा अपमानजनक बात किसी भी सरकारी साहब के लिए कुछ और नहीं हो सकती की उन्हें पानी भी खुद ही लेकर पीना पड़ता है। 

चपरासियों की भी कई श्रेणियाँ होती हैं। कुछ जो दफ्तर के बड़े साहब के साथ लगे होते हैं उनके कपड़े बर्फ की तरह उजले और कंधे पर किसी सौन्दर्य प्रतियोगिता की विजेता की तरह के sash भी होता है, और कभी कभी एक ऊंची पगड़ी भी। लेकिन जो मध्यम दर्जे के साहब का चपरासी होता है, वो साल में केवल एक बार अपनी वर्दी धुलवाता है, और जिस चपरासी की duty किसी बाबू के साथ होती है, वो अपने को सदैव छुट्टी पर ही मानता है और वर्दी तभी पहनता है जब उसका mood होता है। 

मुझ जैसे नौसिखिए जो अपनी पानी की बोतल खुद लेकर आते हैं और जो चाय भी नहीं पीते, जो अपने चैंबर का दरवाजा खुद खोल्न और बंद करना जानते हैं और जिन्हें फ़ाइल उठाने में भी कोई तकलीफ नहीं होती, उन्हें चपरासी बड़ी हिकारत और नफरत भरी निगाहों से देखते हैं। उनमें ऐसी कानाफूसी होती रहती है कि ये भी भला कोई साहब हैं जो खुद स्कूल के बच्चे की तरह पानी की बोतल लेकर दफ्तर आते हैं। साहब तो एओ फलां-फलां साहब थे जिनके आने से पहले चपरासी दरवाजा खोले, कमरे की बत्ती और पंखा चलाये कुर्सी खींचने के लिए तैनात रहते थे। उन साहब के पीने का पानी चपरासी गिलास में डालकर उसपर ढक्कन भी रख दिया करते और पानी पीते ही तुरंत refill करने के लिए दौड़ पड़ते। एक और चपरासी तो उनके साथ गाड़ी में सिर्फ दरवाजा खोलने और पानी पिलाने के लिए ही बैठता था। वो ठाठ भी क्या ठाठ थे। ये तो गरीब साहब हैं। खुद ही अपना बैग उठाते हैं और खुद ही अपनी फ़ाइल एक कमरे से दूसरे में लेकर चले जाते हैं। 

ऐसे नौसिखिये साहब लोगों की वजह से चपरासियों की कीमत कम हो जाती है। क्योंकि अगर हर साहब अपनी गाड़ी का दरवाजा भी खोलने लगें और अपने चैंबर का दरवाजा भी; अगर वो खुद ही बत्ती जला भी लें और बुझा भी लें और पानी भी खुद ही लेकर पी लें तो कैसे चलेगा भला? और तो और अगर साहब लोग बिना चपरासी के पर्ची लाये सबसे मिलने लगे तो चपरासी की power ही क्या रह जाएगी। ऐसे साहब खतरा हैं चपरासी समाज के लिए और इनका विरोध करना चाहिए।